मिहिर! अथ कथा सुनाओ (भाग २८) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(२८)
भारत देश विकास, करे सबकी थी आशा।
छाया था उल्लास, बीच घनघोर निराशा।
आदिवासी सदान, हुए अंदर से जर्जर।
भूमि सुधार विधान, ग्रहण बन आई उनपर।।


सरकारी आदेश, बिना भू बेच न पाना।
बरबस हुई निषेध, वनों में खेत बनाना।
जंगल पर अधिकार, रहा अब नहीं सरासर।
पाबंदी अतिकार, चिढ़ाते थे रह-रह कर।।


अभयारण्य सतत, लगी भरने किलकारी।
उड़ी चैन की नींद, गाँव उजड़े जब भारी।
इनकी गई जमीन, कोलियरियाँ मुस्काई।
लोग हुए ग़मगीन, कि कैसे हो भरपाई?


मुआवजे की आस, जगी थी सबके अंदर।
मुकररी पुनर्वास, शोर उभरी रह-रह कर।
प्रयासरत सरकार, कूर्म सम दौड़ लगाई।
विफल रही हर बार, सफलता हाथ न आई।।


नेताओं के द्वार, खटखटाए दिलहारे।
'नाव लगाओ पार', गुहार लगाए सारे।।
फिर क्या हुआ पतंग? कथा विस्तार बताओ।
ममता करे गुहार, मिहिर! अथ कथा सुनाओ।।


डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)


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