गुमशुदा आलू और प्याज - व्यंग्य कथा - कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी

कहाँ हो आलू? यह सवाल अब चारों और जंगल में आग की भांति फैल रहा है। आलू की ऐसी ढूनईय्या मची है कि आलू ना हो कोई सोने का जेवर हो। भाई आलू हो भी क्यों ना क्योंकि हर फेलियर सब्जी के पीछे सफलता की कहानी जो है। कुछ ना समझ में आए तो आलू ही बना लें, उगाने में नंबर वन देश के अन्य प्रदेशों से कहीं ज्यादा दाद देता हूँ वाली बात का हकदार आलू प्रदेश से ही गायब है।

गुमशुदा आलू की तलाश किडनैपिंग की ओर बढ़ रही है, यानी सब्जी की भाषा में बात करें तो कालाबाजारी की ओर बढ़ रही है। जी बिल्कुल सब्जियों की महफिल आलू के बिना नहीं सजती हर वर्ष कोई ना कोई सब्जी किडनैप कर ली जाती है, कभी कबार टमाटर जो फल की श्रेणी में आता है वह भी किडनैपिंग का शिकार हो ही जाता है। प्याज के क्या कहने! प्यास तो आजकल ऐसे थाली से गायब है जैसे शुद्ध देसी घी जो अब हर किसी को मिलता ही नहीं, अक्सर चाट वाले मूली खिला देते हैं प्याज भ्रम मे। 

आज आलू और प्याज थाली में न होने पर या यूं कहें तो रसूख वालों की थाली में डरे सहमे से दोनों एक साथ कुछ ना कह पाने की मुद्रा में पत्थर बने हुए हैं। इधर आम आदमी की थाली के बादशाहत रखने वाला आलू के ना होने पर मानो संग्राम से छिड़ गया है, साहब को आलू ही पसंद है और आलू ही खाएंगे और बस चले तो आलू ही पियेंगे पर आलू है कोई बयानी मशीन तो नहीं इधर से सोने रूपी बीज डाला और उधर से आलू मशीन से निकाल लिया जिससे कि थाली में आलू की उपस्थिति भी दर्ज हो गई और आय भी बढ़ गई।
अब साहब आलू ही खाएंगे और प्याज के पकोड़े भी कसम जो खाई बैठी हैं झोला लेकर निकल ही पड़े हैं, अब भाई आजकल जो ठेले पर आलू नहीं होता, वह बड़ा ही निरीह ही नजरों से देखा जाता है परंतु गरीब के पेट का मसीहा ही है। यह कभी भी उपेक्षा की नजरों से नहीं देखा गया इतना महंगा होने के बावजूद ये सभी स्वादों मे समाने वाला फलाहारी अब सब की थाली में आने को पुनः बेताब हैं क्योंकि समझ से परे है। जब चाहे तब अपने को बनवाने के लिए सब्जी वाले की फटे बांस की आवाज की भांति ही सही थाली में आने को बेताब है। बेचारा नजरों से अपनी थाली को ढूंढ रहा है और यही कह रहा है कि कब तक बोरियों में पड़े रहेंगे? कब तक गुमसुदा का धब्बा वाला पोस्टर चिपकाए रहेंगे? अब तो जागो कुछ भी रूप बनाने वालों आलू की भूँख जागाओ आज मैं भी गायब हूँ एक साथ बनाओ दोनों को आलू, प्याज जो तुम चाहो पेटूओं।

कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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