प्यार - कविता - वरुण "विमला"

इसकी जड़ें दबी रहती हैं
ज़मीन के अथाह में
और लुप्त रहती हैं क्षितिज में
बिना जमीन, हवा, पानी के
आसमान में। 

कठोर पत्थर का ह्दय चीर कर
नफ़रत के बीच भी निकल आता है
इसका अंकुर। 
फूट जाती हैं इसकी कोंपले
बिना मातृत्व आश्रय के। 

ये पनपता रहता है महाश्मशान की राख में
और अचानक धधक उठता है
अपने प्रचंड रूप में
ये प्यार है उग जाता है 
कहीं भी!
कभी भी!

वरुण "विमला" - बस्ती (उत्तर प्रदेश)

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