यह स्वेद सिंचित अनाज के दाने हैं।
क्षुधा तृप्ति का यही मान्य पैमाने हैं।
किसान की पीड़ा भला कौन सुना है
इस बात पर नेता बड़े सयाने हैं।
कभी सूखा, बाढ़ कभी, कीड़े - मकोड़े खाते हैं,
यहाँ किसानों के क़िस्मत, नेता प्रेता भी खाते हैं।
वजन-भाव में कम, हल्का, सड़ा-गला बोलकर
घात लगाये व्यापारी, नित विपणन में भी खाते हैं।
ऋण लेना दुष्कर, दफ़तर में भाँति-भाँति के सवाल है।
बंदर बाँट से जो बच जाये, वह भी उनका का जाल है।
भण्डारण महँगे, जुताई महँगे, कैसे सहेजें दाने को?
कौड़ी भाव में अनाज, फिर वही संकट विकराल है।
व्यापारियों को सुविधाएं मुहैया कराती सरकारें है।
पर खाद,बीज,पानी पर राजनीति करती सरकारें है।
किससे, कैसे कहें, सब चोर- चोर मौसेरे भाई हैं
सबके सब पूँछ हिलाते, चंदे पर नियंत्रित सरकारें है।
पिचके गाल गंदे कपड़े उनकी नेत्र कचराई है।
दुबला-पतला मेहनतकश को कैसी छवि दिखाई है?
चारो तरफ घोर निराशा लाचार निरीह सा प्राणी
भला भारत का किसान कब कैसे लिया अँगड़ाई है?
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)