भूख मरने का इन्तज़ार करते हैं - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"

तुम इन्तजार भूख लगने का करते हो
और वो भूख मरने का इन्तज़ार करते हैं
गरीबी इक गुनाह है, वो ऐतबार करते हैं
भूखी माँ दूध पिलाती बन हड्डी का ढांचा
नंगे पैर भूखे कटीली बेर आहार करते है
और वो भूख मरने का इन्तज़ार करते हैं।।

रोटी का निवाला दिखा अक्सर ललचाते 
भूखे हिरण-शावकों का शिकार करते हैं
सरकारी कागजों में सब मिल जाता है
सच्चाई से लोग क्यों इन्कार करते हैं
गरीबों के अरमानों को तार-तार करते हैं
और वो भूख मरने का इन्तज़ार करते हैं।।

कोटेदार की मनमानी, जिम्मेदार ही
आखिर बन मगरमच्छ हिस्सेदार बनते हैं
नगर और ग्राम विकास का ठेका लेकर 
सब मिल बांट के भ्रष्टाचार करते है
उनके सपनों पर फिर से प्रहार करते हैं
और वो भूख मरने का इन्तज़ार करते हैं।।

उनकी झुग्गी में तो फव्वारे लगे है
बादल बूंदें बन उनके बदन पर गिरते हैं
रिमझिम बूदें टूटे बर्तनों में गिरकर रात भर
नये संगीत का अविष्कार करते हैं
तैरते बर्तन भी प्यारी झंकार करते है
और वो भूख मरने का इन्तज़ार करते हैं।।

पैरों में घाव, बदन पर फोड़े, फटी कमीज
बांह बटोरे, सारे दर्द दरकिनार करते हैं
उनकी झुग्गी पक्के मकान में बदले नहीं
ताकतवर बस अपने घरबार भरते है
तूम्हे तो अच्छे बुरे स्वाद की फिक्र है
और वो भूख मरने का इन्तज़ार करते हैं।।

सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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