रोजगार चाहिए - कविता - मोहम्मद मुमताज़ हसन

रिश्तों में नहीं अब कारोबार 
ज़िल्लत-ए-ज़िंदगी को रोजगार चाहिए

कर्म हो ऐसा के घर -बार चले
कमाई अपनी ही हर-बार  चले

इल्म हो ये इंसानियत जिंदा रहे,
डिग्रियों का नहीं अम्बार चाहिए
जिल्लत-ए-जिंदगी को रोजगार चाहिए

ख्वाहिशें इतना ही पालो यारों
रोटी,कपड़ा और मकान रहे

खुशहाल जिंदगानी का 
जरूरी यही सामान रहे

डिग्रियां सर पे जो लिए घूमते 
नहीं अब उन्हें अखबार चाहिए 
जिल्लत-ए-जिंदगी को रोजगार चाहिए

जीने का यही अपना ढंग हो
कपड़ों से ढंका सबका अंग हो

दुखों की न हो आमद दर पे
खुशियों भरा अपना संसार चाहिए
जिल्लत-ए-जिंदगी को रोजगार चाहिए!!

मोहम्मद मुमताज़ हसन - रिकाबगंज, टिकारी, गया (बिहार)

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