तू सज-धज के नज़र आती हैं - नज़्म - कर्मवीर सिरोवा

शफ़क़ की पैरहन ओढ़ें शाम जब मिरे मस्कन आती हैं,
सुर्ख़ मनाज़िर में तू दुल्हन बनी सज-धज के नज़र आती हैं।।

तन्हा रात हैं, शोख़ जज़्बातों के क़ाफ़िले ने नुमायाँ हैं तिरा चेहरा,
चाँदनी की इस ताबानी तपन में कमबख्त नींद भी कहाँ आती हैं।

मुन्तज़िर आँखों में हर रात आमद होती है तिरी तस्वीर,
बेलौस उल्फ़त की इनायत से रातों में भी तू साफ नज़र आती हैं।

आँखें निढ़ाल हैं, रात जवाँ हैं, तरस रहा हैं नींद को मेरे दामन का हर कतरा,
इस पर भी ओ बेरहम निंदिया रानी, तू क्यूँ मुझसे रुख़सत हो जाती हैं..

आओ! टिमटिमाती पलकों से मिरे सीने की शांत धड़कनों को जगाओ,
इस निस्प्राण देह को तुम्हारी तबस्सुम में अब संजीवनी नज़र आती हैं।

तू अब तक ना पूछने आई मिरी कैफ़िय्यत, इश्क़ के मायने मुझसे,
न जाने हाथों की कौनसी लकीर में तुझें बाधा नज़र आती हैं।

शफ़क़ की पैरहन ओढ़ें शाम जब मिरे मस्कन आती हैं,
सुर्ख़ मनाज़िर में तू दुल्हन बनी सज-धज के नज़र आती हैं।।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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