मेरी चाहत - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

क्या कहूँ?
शब्द जैसे खो गये हैं
लगता है ऐसे जैसे तुम्हारे 
प्यार की बंदिशों में सो गये हैं।
तुम्हारी तारीफों के लिए
शब्द कहाँ से लाऊँ?
शब्द भी इठला के मुझसे 
दूर होते जा रहे हैं।
तुम क्या आई जिंदगी
जिंदगी में रंग भर दी,
प्यार के रस घोलकर
जिंदगी मधुमास कर दी।
थी अकेली आई जब तुम
कितने रिश्ते नाते छोड़कर,
मोह में जकड़ा सभी को
बनके जैसे जादूगर।
मेरी हर दुविधा को
पल मेंं तुम हो दूर करती,
तुम तो मेरी जिंदगी में
खुशियों के सौ रंग भरती।
जन्मों जन्मों तक मेरी
संगिनी जीवन बनो,
और न चाहूं किसी को
बस! तुम मेरी चाहत बनो।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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