मैं बाती हूँ - कविता - गणपत लाल उदय

मैं एक बाती हूँ
हर रोज में जलती हूँ।
जलकर अंधेरा मिटाती हूँ
प्रकाश सभी तक पहुँचाती हूँ।।

मुझें कोई याद नहीं करता
क्यों कि  मैं दीया नहीं बाती हूँ।
मैं हर रोज बनती हूँ बिगड़ती हूँ
तेल में भीगकर जलती हूँ।।

मेरा निर्माण सभी इसलिए करते है कि
मैं दूसरों के जीवन में उजाला कर सकूँ।
मुझें जलकर  भी खुशी मिलती है
कि मैं किसी को रास्ता दिखाती हूँ।।

मैरे जैसे अगर तुम भी जलो या टूटो
तो अकेले  ही जलना या टूटना।
क्यों कि दुनियां तमाशा देखकर
बहुत  हँसी - मजाक  बनाती हैं।।

धूप का नाम भी ऐसे खराब कर रखा है
सच तो यह बात हैं कि लोग।
आपस में ही एक दूसरे से जलते है
लोग बाती नहीं दीया बनते है।।

मैं फिर भी यही कहूँगी कि
हे परमेश्वर सलामत रखना
हर उन आँखों को जो मुझको
देखकर कुछ सीख लेते हैं।।


गणपत लाल उदय - अजमेर (राजस्थान)


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