कभी हँसती, कभी रोती थी माँ - कविता - नीरज सिंह कर्दम

सड़क के उस पार खड़ी
बुजुर्ग, बीमार महिला
सामने वाले बंगला को
बड़े ही ध्यान से
निहार रही थी।
सामने वाले बंगले से
एक महंगी कार बाहर आती है,
कार में बैठे युवक को
देख बहुत खुश हुई।
गाड़ी में बैठे युवक ने
उस तरफ देखा और
मुँह दूसरी तरफ कर लिया।
गाड़ी में बैठा युवक कोई और नहीं
उस बुजुर्ग बीमार महिला का बेटा था।
जो एक बड़ी कंपनी में
बड़ी पद पर कार्यरत था,
कंपनी की तरफ से ही
गाड़ी बंगला मिल गए थे।
इतना सबकुछ पाकर 
बेटा माँ को भूल गया
अपने स्वार्थ में माँ को नकार दिया।
और एक माँ थी
जो हर रोज उसे देखे बिना
नही रह पाती थी।
धिक्कार बेटे ने 
माँ को मरा हुआ बता दिया।
वो अकेला है इस दुनिया में
सबको जता दिया।
माँ की मेहनत से
सबकुछ पा लिया,
पैसों को पास कर
माँ को दूर कर दिया।
एक माँ थी जो दूर ना हो पा रही थी
हर रोज बंगले के बाहर खड़ी होकर
बेटे को देखे जा रही थी।
बेटे को देखे बिना
माँ को आराम कहां पड रहा था,
अपने गिरते स्वास्थ्य का इलाज
बेटे को देखकर ही
कर रही थी।
बेटा था स्वार्थी
माँ की ममता कहां देख रहा था
माँ को देखकर 
गुस्से से लाल पीला हो जाता था।
मन ही मन सोचता था कि
अगर पता चल गया किसी को
कि बंगले के बाहर खड़ी होकर
जो हर रोज मुझे देखती है
दूसरों से मांगकर रोटी
अपना पेट भरती है
वो मेरी माँ है तो
मेरी यहां क्या इज्जत रह जाएगी।
बेटे को इज्जत का ख्याल था
भूल गया माँ के हर दर्द को
पांच माह की उम्र में ही
पिता का साया उठ गया,
सारा भार माँ पर आ गया
कमर पर बेटे को बांधकर
दिन भर मजदूर करती थी माँ
खुद भूखी रहकर 
बेटे का पेट भरती थी माँ।
झाड़ू पोंछा, झूठे बर्तन साफ कर
पैसा जुटाकर, स्कूल भेजती थी,
माँ की मेहनत से बेटे ने
पढ़ लिखकर अच्छा मुकाम पा लिया।
वक्त माँ की सेवा करने का था
पर उसे माँ से चिढ़न होने लगी,
वो पढ़ा लिखा अच्छी नौकरी करने वाला,
और माँ अनपढ़ जो थी,
माँ एक शब्द ना लिख सकती
ना पढ़ सकती थी।
पर बेटे को दुनिया का हर शब्द
लिखना और पढ़ना सिखा दिया।
अच्छी नौकरी, बंगला गाड़ी देख
बेटा हर शब्द वो भूल गया।
माँ अकेला गाँव में छोड़कर
शहर आ गया।
बेटे को ढूंढते हुए
माँ भी शहर आ गई थी,
बेटा का पता लगाकर 
उसके पास गई थी।
चौकीदार बंगले के अंदर
लेकर गया और बोला
साहेब ये बूढ़ी औरत आपसे मिलने आई है
खुद को आपकी मां बता रही है,
वहां और भी लोग मौजूद थे,
क्या कह रहे हो
ये मेरी माँ नही है, नही है ये मेरी माँ
अरे तुम्हारी माँ, 
लेकिन तुम्हारी माँ तो....
वहां मोजूद एक व्यक्ति बोला,
जी हां, मेरी माँ कुछ साल पहले ही
इस दुनिया को अलविदा कह चली थी।
सुनकर ये सब माँ चुपचाप
उल्टे पांव बाहर आ गई।
कुछ देर बाद बेटा
माँ को ढूंढते हुए बाहर आया
सड़क किनारे बैठी मां को देख बोला
तुम मेरी माँ हो 
अगर ये यहां सबको पता चल गया तो
मेरी क्या इज्जत रह जाएगी,
मेरी नौकरी चली जाएगी।
माँ मेरी खातिर वापस गाँव चली जाओ
कुछ पैसा निकाल जेब से 
माँ को दे दिए,
बेटे को आशीर्वाद देकर 
माँ चुप वहां से निकल गई।
बस अब रोज 
सड़क के उस पार से ही
बेटे को देखकर
कभी रो लेती थी, कभी हँस लेती थी माँ
दो बाते हमेशा
मन में चलती रहती थी माँ के
एक बात पर खुश, एक बात पर रोती थी माँ
जब सोचती थी कि
काश अगर इतना ना पढ़ाया होता 
तो आज बेटा मेरे पास होता
तब रोती थी माँ।
जब सोचती थी माँ कि
आज उसका बेटा पढ़-लिख कर
बड़ा आदमी बन गया है तो
गर्व करती, बहुत खुश होता थीं माँ।
सड़क के उस पार ही माँ ने
अपने प्राण त्याग दिए।
बेटा अंतिम फर्ज निभाने ना पहुंचा
लावारिस लाश की तरह
पुलिस ने उस माँ का दाह संस्कार कर दिया।
धिक्कार बेटा स्वार्थी बन गया
माँ के दूध का कर्ज भी ना चुका सका।
कभी हँसती, कभी रोती थी माँ।

नीरज सिंह कर्दम - असावर, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)

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