फ़र्क़ - कविता - डॉ. कुमार विनोद

लड़कियों के पैदा होने व
बाप के लिए चिंता का बीज 
बोनेकी वजह 
समाज द्वारा खाद पानी 
दहेज के रुप में जड़ों में डाला जाना है 
क्योंकि जड़ें खाती हैं।
पूरा पेड़ लहलहाता है।
बाहर सेभले ही पिता मुस्कुराता है
पर अंदर ही अंदर टूटता चला जाता है।
शिकायत है तो सिर्फ पढ़े-लिखे लोगों से 
क्योंकि यही समाज, दहेज न मिलने से अक्सर
रूठ जाता है।
जिस दिन डॉक्टर्स, इंजिनियर्स, अधिकारी, कर्मचारी
दहेज मुक्त शादी करेंगे 
उसी दिन से 
दहेज की रकम
उनकी शिक्षा पर आने वाले ख़र्च से
सीधे नहीं जोड़े जाएंगे।
सामने होगा -एक दहेज मुक्त समाज।
तब न डिबरी से जलने का डर,
ना स्टोप से फटने का डर,
ना गैस लीक होने की गुंजाइश और न ही अनायास फंदे पर लटकते शव,
यही नहीं ये व्यक्ति 
अपनी माँ, बहनों, जेठानी से 
अपनी पत्नी के दांव पर लगी इज्जत को बचाएंगे।
माचिस की तिल्ली, मिट्टी का तेल, पेट्रोल,
बहुए नहीं जला पाएंगे।
पढ़ी-लिखी लड़कियों ने दहेज लोभियो को झिंझोड़ा है।
उन्हें कहीं का भी नहीं छोड़ा है।
दहाड़ मार कर कहती है 
रमुआ की बेटी सत्या,
मत करो अत्याचार,
रोक दो दहेज के कारण होने वाली भ्रूण हत्या।
आखिर मिग विमान उड़ाती है,
सीमा पर लड़ती है,
अंतरिक्ष में जाती है,
एवरेस्ट पर फतह पाती है,
कठिन से कठिन काम सहज ही निपटाती है।
काश!
लड़कियों को समाज ने और अधिकार दिया होता?
पिता के शव को कंधे पर रख,
भारी मन से ही नियत के ऊपर छाती पीटती,
मुखाग्नि देती ये बेटियाँ..
सिर्फ! बाप को ही नहीं तारती बल्कि
पूरे समाज को तार जाती।
लड़कियों को मुखाग्नि देने में
सिर्फ सोचने का फ़र्क़ है।
सच मानिए स्वर्ग यही है
और नर्क भी यही है 
इनके मुखाग्नि देने से कहीं भी कोई बेड़ा गर्क नहीं है।
क्योंकि लड़के और लड़की में कोई फ़र्क़ नहीं है।

डॉ. कुमार विनोद - बांसडीह, बलिया (उत्तर प्रदेश)

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