भोर हुई वो घर से निकला - कविता - आर एस आघात

भोर हुई वो घर से निकला,
जग सारा जब सोया था।
तन उसके दो गज का गमछा, 
शिक़वे न किसी से करता था।

सुबह से लेकर दो पहर तक, 
रहता वो खलियानों में,
दो जून के खाने को, 
बस आता है वो दरम्यानों में।
इक-इक दमड़ी लगी खेत में,
रहता न पास एक धेला है,
अपने बच्चों की खातिर, 
वो बहता रहत अकेला है।।
भोर हुई वो घर से निकला...

कभी वो रहता कड़क ठंड में, 
कभी है गर्मी का जलजला,
कभी रहता मदहोश वारिश मैं, 
हर सुख-दुख वो यूँ ही सहता।
न रही शिक़ायत उसे किसी से, 
रहता सुखी सुखी जीवन में,
करता रहत वो यूँ बेगारी, 
बेगारी का मूल न उसको मिला है।।
भोर हुई वो घर से निकला...

हर दिन रहता उलझन में, 
घरबार चलेगा अब कैसे,
फसल आपदा में हुई बर्बाद,
ये कर्ज अब कैसे निकलेगा।
सोच क्या रही होगी उसकी,
चला क्यों उसने ऐसा दाँव,
रही न उसकी हस्ती है, 
न रहा वो शिक़वे करने वाला।।
भोर हुई वो घर से निकला...

रह गई उसकी याद चमन में,
जिस चमन का वो रखवाला था,
पंछी उड़ते रहत बगिया में, 
अब बाग भी वो अनजाना था।
इस भोर में अब ना वो रौनक है, 
ना है वो पहले से चमक,
उड़ गई चमक उस बगिया की, 
जिसका था वो रखवाला।।
भोर हुई वो घर से निकला...

भोर हुई वो घर से निकला,
जग सारा जब सोया था।
तन उसके दो गज का कपड़ा, 
शिक़वे न किसी से करता था।।

आर एस आघात - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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