युद्ध अभी शेष है (भाग २) - कहानी - मोहन चंद वर्मा

कुछ दिन बाद.......
किसी राज्य के सम्राट ने एक व्यापारी मेले का आयोजन करने की घोषना की सम्राट ने ये संदेश सभी देश-विदेश के राजाओं को दी राजाओं ने अपने-अपने राज्य में इसकी सुचना फैला दी।
 
कुम्हार मिट्टी के बर्तनो को बैलगाडी में रख रहा था। तभी पत्नी एक टोकरी लेकर आई जो कपडे से ढककर बंधी हुई थी। पति को टोकरी देती हुई बोली, ’लो इसमें मैनें खाना बांध दिया है।’ टोकरी लेकर बैलगाडी में रखा तो आठ साल की बेटी पिता के पास गई और बोली, ’पिताजी मैं भी चलूगी मेले में।’
मां: पाप घुमने थोडी ना जा रहे है सामन ही तो बेचने जा रहे है।
बेटी: नहीं मैं भी चलूगी।
मां: जीद नहीं करते।
बेटी: जाऊगी।
पिता: अच्छा ठीक है चल।

फिर पिता-बेटी दोनों बैलगाडी पर सवार होकर चल दिए। चलते-चलते दोपहर हो चुकी थी। कई व्यापारियों की बैलगाडी पेडों की छाँव में खडी थी। गाय-बैल चारा खा रही थी कुछ आराम कर रही थी। वे सभी लोग भी वृक्ष की छाओं में बैठे थे कोई भोजन कर रहा था कोई आराम कर रहा था। तो कोई आपस में वार्तालाप कर रहा था। वे सभी अगल-अलग जाति के लोग थे। वह भी अपनी बैलगाडी को छाँव में खड़ाकर बैल का चारा डालकर पिता-बेटी भी भोजन करने लगें कुछ देर आराम करने के बाद एक व्यापारी बोला, ’चलो अब चलते है नहीं तो यही रात हो जाएगी। सभी लोग उठे और चल दिए।

दोपहर से रात हो चुकी थी सभी चले जा रहे थे। रात और गहरी होती चली जा रही थी। लेकिन आसमान में सूर्य के प्रकाश से चमकते पूरे चाँद का प्रकाश धरती पर पड रहा था। तभी एक व्यापारी के कहने पर सभी रूके फिर उसने कहा, ’वो राज्य यहाँ से कुछ ही दूरी पर है हम सब यही रात गुजार लेते है फिर रात्रि के अंतिम प्रहर को उठकर चल देगें सुबह होते-होते तो राज्य की सीमा तक तो पहुँच ही जाएगें।’ सभी उस व्यापारी की बात मान कर सभी वहीं रूक गए भोजन पानी कर सो गए। आधी रात वहीं गुजाकर जाने के बाद रात्रि के अंतिम प्रहर में उसी व्यापरी ने सभी को आवाज देकर जगाया। और फिर सभी उठकर चल दिए।

राज्य की सीमा तक पहुँचने पर सैनिक ने सभी को जाच-प्रताल के बाद ही सभी को अंदर जाने दिया। पहले पहुँच चुके व्यापारी अपना सामान जचाकर बैठे थे। उन सभी व्यापरियों ने भी अपने-अपने स्थान पर सामान जचाकर बैठ गए। दूर-दूर तक अलग-अगल प्रकार के व्यापारी अपना-अपना सामान सजाए बैठे थे। खरीदने वाले व्यापारीयों से अपनी मन पसंद चीजे खरीद रहे थे। सम्राट रथ पर सवार होकर रानी के साथ मेले का भ्रमण किया। कहीं मिट्टी की बनी वस्तुओं की दुकान लगी हुई थी। कहीं पर कपड़ो की तो कहीं धातु और लकड़ी से बनी तरह-तरह की चीजो की दुकान लगी हुई थी। कहीं पशु-पक्षी के माँस की दुकान लगी हुई थी तो कही पाले जाने वाले पशु-पक्षी की दुकान लगी हुई थी। कहीं पकवानों की तो कहीं सजावटो की दुकान लगी हुई थी। सुबह से शाम हो चुकी थी। बेचना खरीदना अभी भी जारी था। एक दिन का मेला था। जो अँधेरा होते होते समाप्त हो चुका था। ग्राहक सभी जा चुके थे व्यापारियों को रात का भोजन सम्राट की ओर से दिया गया। व्यापारियों ने रात वहीं गुजारी अगले दिन सुबह होते ही अपने-अपने घर के लिए निकल गए। 
 
कुछ दिन बाद.......
कुम्हार को बीमार पड़ा देखकर पति को बैलगाडी में बैठाकर वैद के पास लेकर गई।
’’वैद जी देखिए इन्हें किताना तेज बुखार है।’’
वैद ने मरीज को छू कर देखा।
’’आप चिंता मत करिए ये अच्छे हो जाएगें। कुछ दिन इन्हें यही आराम करने दे जब ये पुनः रूप से ठीक हो जाएगें तो मैं आप तक खबर पहुँचा दूगा।’’

तीन दिन बाद जब पति से मिलने गई। उसकी हालत में थोडा सुधार था। फिर एक दिन कुम्हार की पत्नी अपनी सास को भी पति की तरह बीमार पडा देखकर वैद के पास लेकर गई। वैद उसे देख ही रहा था की वृद्ध औरत ने अपने वहीं प्राण त्याग दी। वैद बोला, ’ये तो मर चुकी है।’ ऐसा सुन कर वह रोने लगी साथ में बेटी दादी.....कर रोने लगी।
’’ये क्या हो गया?’’
 
फिर क्या था? 
श्मशान में जलती लाशे थीे। मरीजो की बढ़ती जनसख्याँ थी और लोगों के रोने की आवाजे थी।
 
शिष्य ने वैद से पूछा, ’गुरूजी आखिर ये कौन सा रोग है जो कम होने के बजाए फैलता ही जा रहा है।’
’’ये रोग कोई साधाराण रोग नहीं है विनाश कारी है तभी तो इतने कम समय में ही अपना आतंक फैला रखा है।’’

वैद ने शिष्य को पत्र देते हुए कहा, ’ये पत्र तुरंत महाराज के पास लेकर जाओं।’
वैदजी को थकान की अवस्था में बैठे जाने पर,   
’’गुरूजी क्या हुआ आप थके-थके से लग रहे है। आपका तो शरीर भी तप रहा है।’’
’’लगता है इस रोग ने मुझे भी अपनी चपेट में ले लिया है। अब तुम देरी मत करो जल्दी से ये पत्र सम्राट के पास लेकर जाओं।’’

जारी... पढें अगले अंक में

मोहन चंद वर्मा - जयपुर राजस्थान

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