इंतजार में धीरे-धीरे
एक सवेरा निकल चला,
अंधकार से ढ़का आसमां
एक उजेला निकल चला।
चाँद भी धीरे-धीरे गगन में
मंद मंद मुस्काए रहा,
कंचन वर्णी किरणों संग
वो प्रभात दिखलाए रहा।
शान्त चित्त धीरे-धीरे तन
से सुप्रभात बतलाए रहा,
अलसित पड़ी वनस्पति को
पीली किरर्णो से उठाय रहा।
पंछी भी तरुवर से ताल में
टीं, टीं, टूं, ट्रीं, टीं, कूं, से,
वो प्रभात बतलाए रहा
देख रहा नित है सबको।
अब मानव जग को उठाय रहा ?
एक सवेरा निकल गया
जब धीरे-धीरे चुपके-चुपके
रवि घर की पैकड़िया चढ़ा।
तब खिड़की तक न पहुँच सका
एक सवेरा निकल चला,
मेरे आंगन से धीरे से
कब प्रभात वो निकल गया।
क्षितिज पर मानो खिला अभी था
पश्चिम की ओर वो दौड़ चला,
इंतजार में धीरे-धीरे अब
एक सवेरा निकल गया।
कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)