नशेड़ी माटसाब - कविता - कर्मवीर सिरोवा

वो आज फिर वक्त से निकला हैं,
क्या लगता हैं आज स्कूल पहुँच जायेगा।
उसकी प्यासी रगें इस उजलत में थी,
इस राह ठेका आयेगा।
जेब में पड़ी नोटें रक़्स कर रही थी,
जिन नोटों को घरवालों ने  बंधक बना रखा था।
जेब में पड़ी नोटें जानती थी कि,
नशेड़ी अंगूर की बेटी का गुलाम हैं,
ये किस्सा हम गली हर सड़क आम हैं।
जेब में पड़ी नोटों ने कहा,
मयख़ाना आ गया,
एक नोट ने कहा,
मैं जेब के साहिल पर हूँ,
मेरा नम्बर आ गया।
छोटी नोट ने कहा,
मैं तुम्हें अंगूर की बेटी का चुम्बन दिलवाऊंगी,
बड़ी नोट ने कहा, 
मैं तुम्हारी रग रग की प्यास बुझाऊँगी।
सभी नोटें बाहर निकलने को बेताब थी।
नोटें बहकते काँपते हाथों से निकल रही थी,
वो शराब पीता गया,
और अंगूर की बेटी की मोहब्बत में डूबता गया।
वो भूल गया कि 
ये वक्त मयख़ाने में देशी गटकने का नहीं,
स्कूल पहुँचने का हैं।
लेकिन माटसाब नशेड़ी ठहरें, 
स्कूल से उन्हें लेना देना क्या।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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