नकली सुबह - कविता - कर्मवीर सिरोवा

सुबह हुई हैं
क्या ये सच हैं
या फिर ये भी कोई
धोखा है आँखों का।
अंधेरा भी कहाँ मरता हैं,
हाँ, नकली उजाला फैला है।
फ़क़त स्याह रात ढ़कने
एक आबरू नोची गई,
तब उजाला ही था,
हाँ, नकली उजाला।
बेटी की आँखों में तो
सिर्फ अंधेरा था,
तन को नोचने वाला अंधेरा था।
जब तक ये अंधेरा रहेगा
सुबह नहीं आएगी,
हाँ, आयेगा नकली उजाला।
उन कालिखों को बचाने,
जताने की सुबह आयी हैं,
एक नकली सुबह।
वो काली रात भी धवल थी
जब जली थी कोई सुबह,
अब होगी मुकम्मल रात,
हाँ, आयेगी तो नकली सुबह।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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