मुक्त ही करो - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

आखिर कब तक हम बेटियाँ 
यूँ ही लुटती पिटती मरती रहेंगी, 
कब तक हमारी खुशियां 
हमारा सुखचैन 
यूँ ही छिनता रहेगा।
कभी गर्भ में, कभी दहेज के लिए,
कभी जिस्म के भूखे दरिंदों की
भेंट हम चढ़ते रहेंगे।
कब तक हम गरम गोश्त के
भूखे भेड़ियों की भूख 
शान्त करते रहेंगे।
आखिर हमारा भी तो कोई अस्तित्व है या हमें जीने का कोई हक नहीं है।
यदि राष्ट्र समाज की नजरों में 
हमारा भी कोई अस्तित्व है तो 
आप लोगों का कोई कर्तव्य नहीं है?
कब तक आप मौन बने रहेंगे?
अपनी बहन बेटियों के लाशों पर 
मातम करते रहेंगे?
अब तक जाने कितनी 
बहन बेटियों को खोने के बाद भी,
समाज/कानून और सरकारों को 
शर्म नहीं आयी,
जो हमारी हित में
खौप न पैदा कर पाई।
या सिर्फ अपनी ही बहन बेटी की
इज्जत लुटते/अमानवीय मौत
देख ही शर्म आएगी,
आखिर मानवता समाज कानून 
कहाँ है?
इससे अच्छा तो जंगलराज है
जहाँ कोई किसी का 
पुरसाहाल नहीं है। 
अब तो इस समाज/समाज के 
रहनुमाओं/कानून के रखवालों की बेशर्मी को देखकर 
सोचती हूँ कि यही अच्छा होता 
कि मेरा जन्म ही ना होता है,
बेटी का अस्तित्व ही मिट जाता
अरे बेशर्म समाज के ठेकेदारोंज़
कानून के रखवालों,
बेहयाई छोड़ो, आँखे खोलो, 
फिर विचार करो।
अब तो कुछ काम करो 
इस समाज में बढ़ रहे जंगलराज को समाप्त करो।
या फिर हमें जन्म न लेने देने का 
कानून ही पास करो।
फिर चैन से जी भरकर
आराम ही आराम करो।
हमारे अस्तित्व पर  तो 
अब और न कुठाराघात करो,
बस बहुत हो चुका
हमें अपने इस समाज से
अब तो मुक्त ही करो।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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