मैं कातिल हूँ - कविता - नीरज सिंह कर्दम

यह तो साफ हो चुका है कि
इंसान की शक्ल चमचे जैसी ही नही होती है,
दोनों हाथों में तलवार लिए
लाल आँखे,
शेर जैसी दहाड़ मारती हुई वो तस्वीरें भी
मोम की बनी होती है
जिन्हें जरा सी आग की सेंक दी तो
पिघल जाती है।

अब तुम ही देख लो आज
चमचे कैसे चापलूसी में लगे रहते हैं
हथियार बनकर, अपनों का ही कत्ल कर देते हैं
कुछ भी पाने की खातिर वो
तलवे भी बड़ी शान से चाटते रहते हैं।

मैं मौन नही रह सकता, मै एक कवि हूँ
मेरी कलम ही मेरा हथियार है
मैं लिखता हूँ, लिखता रहूँगा,
अगर तुम कहते हो कि मैं कातिल हूँ
तो हां हूँ मैं कातिल।

मैने अपनी कलम से बार किया है उन पर
जो सबकुछ देखते हुए भी मौन थे
मैंने अपनी कलम से कत्ल किया है उनका
जो कर रहे थे कत्लेआम, लूटपाट
हक का क़त्ल किया, सच को किया लहूलुहान।

चमचों पर चलती है कलम मेरी
उनकी सच्चाई लिखने को,
अपनी ही नजरें, अपनी आँखो से मिलाओ
और देखो, क्या सामना कर सकती हैं
तुम्हारी इस सच्चाई का, कि तुम तलवा चाटी कर रहे हो ।

मुझे देशद्रोही भी कहा जाएगा,
मुझे हत्यारा भी कहा जाएगा
और कटघरे में खड़ा कर दिया जाएगा मुझको
पूछे जाएंगे मुझसे बहुत से सवाल
मगर मै सच कहता हूँ, मैं सही कहता हूँ
चमचों, तलवा चाटूकारों पर कलम चलाई मैंने
कलम चलाता रहूँगा मैं,
अपनी कलम से कत्ल किया है उनका, उनके जमीर का
तो मैं कातिल हूँ, मैं कातिल हूँ ।

नीरज सिंह कर्दम - असावर, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)

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