साहित्य विहीन सस्ते चुटकुले व जोक्स सामान्य जन को सदैव हँसने का अवसर देते रहे हैं। आज के साहित्य में हास्य खोजना, रूई के ढेर में सुई खोजने जैसा दुरूह कार्य है एवं तथाकथित जनतंत्र में खुलकर दिल से हँसना गधे के सिंग सा नौ दो ग्यारह है। ऐसे विषम परिवेश में जोक्स की हैसियत व उपादेयता बढ़ जाती है।
जब स्वस्थ साहित्य दिनकर, हरिशंकर परसाई, मनोहर जोशी की कलमों से हास्य व्यंग्य उगल रहा था तब काका हाथरसी, सांड़ बनारसी, शैल चतुर्वेदी, उर्मिल थपलियाल जैसे लोगों की कलमें पढ़े - लिखों को पेट पकड़कर हँसा रही थीं किन्तु फिर भी सामान्य जनमानस रोटी - भात में उलझकर हँसी से बहुत दूर था।
फिर आया दौर जीजा - साली, देवर - भाभी और पति - पत्नी का जो हँसाने से ज्यादा सम्बंधों की शुचिता को तोड़ - मरोड़कर परोक्षत: वासना को संतुष्ट करता रहा और आज भी कुछ हद तक कर रहा है। सुरेन्द्र शर्मा अथक प्रयास से अब भी जिंदा रखे हुए हैं।
इसी बीच न जाने किन लोगों के योजनाबद्ध कुत्सित प्रयासों से सरदारों को महामूर्ख के रूप में सामने लाया गया और सरदार जोक्स के पर्याय बना दिए गए। सरदारों की ऐतिहासिक शौर्यगाथा पर यह सबसे बड़ा कुठाराघात था। उनकी अस्मिता को लीलने की कोशिश थी। जसपाल भट्टी जैसे कलाकार सरदारों का मान - मर्दन कर खुद समृद्ध हो गए। अभी तक जोक्स, चुटकुलों के पात्र अनाम थे। जहाँ कहीं भी दो चार लोग इकटठा होते, अपनी आर्थिक तंगहाली और बौद्धिक बड़प्पन का श्रृंगार 'सरदार' से करते।
समय पलटा और 'सरदारों' की मुक्ति शुरु हुई संता - बंता के तूफानी आगमन से। ये किसके मस्तिष्क की उपज थे, अन्वेषण का विषय है। इनकी पहुँच संसद से सड़क, बाथरूम से देशाटन तक रही। हर कोई सामने वाले को संता - बंता के रूप में देखता। सस्ते और सर्व सुलभ हास्य के विकास क्रम में और भी कई लोगों ने हाथ आजमाया पर टिक न सके। 'मिस्टर खाँसी' भी कुरुक्षेत्र में बिल्ली बनकर दैवयोग से और भी छींके टूटने के लिए डटे थे किन्तु इनकी मंशा पर एल टी गवर्नर ने पानी फेर दिया।
गहन जाँच -पड़ताल से पता चलता है कि इन सबमें एक यह बात कामन है कि कोई 'नारी' हास्य की स्थाई पात्र नहीं बनी। जब मैं इस बारे में सोचता हूँ तो इसमें नारी की सूझबूझ की गंध आती है। नारी जाति स्वयं के मान - सम्मान के बारे में सदैव सचेत रहती है। अपने आप पर वह हँस नहीं सकती क्योंकि सम्मान का सवाल है। सौतिया डाह दूसरों पर हँसने नहीं देता। हो सकता है आप इससे इत्तेफाक न रखें। खैर इससे आगे बढऩा चाहिए।
संता - बंता को असमय मौत के घाट उतार दिया हमारे देश के दो महान कर्णधारों ने। बात 2014 के संसदीय चुनाव के समय की है। चुनाव में 'हम किसी से कम नहीं' सकारात्मक सोच का सबसे प्रेरक स्लोगन होता है। जनमत को अपनी झोली में भरने की जुगत में पप्पू अकेले ही संता - बंता की जोड़ी से भिड़ गए और समर का परिणाम बहुत मुश्किल से उनके पक्ष में रहा। अब गप्पू को पप्पू की यह विजय रास न आनी थी न आई। गप्पू जी भी कमर कसकर कूद पड़े मैदान में। पप्पू की हड़प नीति से बेचारे संता - बंता पहले से ही अधमरे थे। ये गप्पू का प्रहार कैसे झेलते। वर्षों से चली आ रही संता - बंता की जोड़ी को एक पंचवर्षीय योजना से भी कम अवधि में मारकर पप्पू - गप्पू की लोकप्रिय युगल जोड़ी ने उनकी विरासत पर कब्जा कर लिया। अब पप्पू - गप्पू की जोड़ी का एकछत्र राज भारत ही नहीं बल्कि भारत से बाहर तक फैल रहा है। हमारी शुभकामनायें पप्पू - गप्पू के साथ हैं। ईश्वर इनकी जोड़ी को अक्षुण्ण बनाये रखें।
डॉ. अवधेश कुमार अवध - गुवाहाटी (असम)