हे पार्थ - कविता - डॉ. अवधेश कुमार अवध

हे पार्थ! उठो गांडीव गहो,
अब कृष्ण न आने वाले हैं।
यह युद्ध तुम्हारा अपना है,
पांडव - उर में सौ छाले हैं।।

जिस मोह जाल में हो निमग्न,
गांडीव त्याग विलखाते हो।
सौ - सौ मुखड़ों में छुपे हुए,
दुश्मन  को देख न पाते हो।।
इन छद्म वेशियों ने अक्सर,
तुमपर हथियार निकाले हैं।
हे पार्थ! उठो गांडीव गहो,
अब कृष्ण न आने वाले हैं।।

माता ने छला मौन रहकर,
अग्रज अरिदल का भाग बना।
जब रोक दिया अंधे को तब,
फिर से क्योंकर कुरुराज बना।।
इस क्रूर नियति ने बार बार,
निज ओर सवाल उछाले हैं।
हे पार्थ! उठो गांडीव गहो,
अब कृष्ण न आने वाले हैं।।

खांडववन मिला भगाने को,
फिर द्यूत सभा का खेल चला।
पांचाली का चिर खुला नहीं,
कुरुवंश-काल का मेल चला।।
भीष्म द्रोण कृपि कर्ण राजकुरु,
खलदल के ही रखवाले हैं।
हे पार्थ! उठो गांडीव गहो,
अब कृष्ण न आने वाले हैं।।

सारथी न होंगे अब केशव,
खुद कृष्णार्जुन बन युद्ध करो।
तज मोह बंध के छद्म जाल,
अरि मार्ग त्वरित अवरुद्ध करो।।
ये शकुनि दुशासन कंस वंश,
दिल  के  कजरारे  काले हैं।
हे पार्थ! उठो गांडीव गहो,
अब कृष्ण न आने वाले हैं।।

डॉ. अवधेश कुमार अवध - गुवाहाटी (असम)

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