बाँझ - कविता - कर्मवीर सिरोवा

वो माँ जो बाँझ कही गई,
समाज की फब्तियों से रोज मारी गई,
जिसे लानतें फेंकी गई,
जिसकी आँखों से अश्रुधार बहती रही;
आज उसने आँसुओ को पोंछ लिया,
दिल पर पत्थर कोई बड़ा रख लिया,
अपनी सिसकियों को निचोड़कर
और माँओ के लिए;
चेहरे पर आँसुओं का सैलाब रख लिया।
वो आज चुप थी,
आज कुछ और थी,
अजीब सी सन्तुष्टि थी उसके मुख पर,
उसे मालूम था कि,
उसकी बेटी की आबरू लूटी नहीं जायेगी;
वो खुश थी कि,
उसका बेटा इस कलंकित 
मर्द जात का नहीं कहलायेगा,
उसे बस मलाल था कि
वो स्त्री भी बाँझ क्यों नहीं थी;
काश वो स्त्री बाँझ होती।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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