सब कुछ पाने की चाहत मन में ,
तन मन जीवन नित अर्पित जग में ,
बस सजीं मंजिलें ख्वाव चमन में,
पड़ा चाहत में खो उदास मन।
धन वैभव की अति चाहत मन में,
आलीशान गेह सुख लालच मन में,
सत्ता पद शासन चाह हृदय में,
है अभिलाष स्वार्थ मन प्रीतमिलन।
नित स्वार्थसिद्धि दर्शन पूजन में,
लिप्सा निर्वाहन बस रिश्तोंं में,
तम चाह जटिल घनघोर लोक में,
आपस घृणा द्वेष छल हेतु गरल।
जग है अनन्त चाहत जीवन में,
सम सप्त सिन्धु गह्वरतम मन में,
अवसाद जन्य,ख़ुद रिपु निर्माणक,
जलता है मानव नित क्रोध अनल।
परमार्थ विरत निज राहत मन में,
पुरुषार्थ हीन बस चाहत मन में,
बेच प्रीति सम्मान त्याग सब,
ईमान धर्मपथ है राह विरल।
नवसोच विलोपित है चाहत में,
भक्ति प्रीति वतन खो स्वार्थ राह में,
मर्यादा ज़मीर न्याय कहाँ अब,
माधुर्य सरस कहँ सद्भाव सरल।
अब पाएँ कहँ उपकार चाह में,
बस भाग रहे जन प्राप्ति राह में,
चाह ग्रसित मनसि ध्येय हीन पथिक,
पथभ्रष्ट सदा हो उन्माद कुटिल।
घोल जाति धर्म ज़हर समाज में,
तोड़े परिणय दहेज चाहत में,
नापाक चीन से मिल द्रोह वतन,
दे आतंक साथ बस चाहत मन।
कहँ चाह प्रगति निर्माण वतन में,
पाना चाहत , बस साज़िश मन में,
नित देश विरोधी दे बयान बस,
चाहत बिन राहत है आहत मन।
कहँ पाएँ निर्मल चाहत जग में,
परहित मन भावन सरस वतन में,
मनमीत प्रीत नवनीत चाह मन,
उन्नति तिरंग ध्वज नवकीर्ति वतन।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली