नन्हीं चिड़िया - मुक्तक - रवि शंकर साह

मेरे आँगन में आ गिरी एक दिन
एक नन्हीं सी, सुंदर सी चिड़िया।
खून से लतपथ, करती छटपट।
पैरो में बंधी थी रेशम की डोर ।

पीड़ा से थी अति आकुल व्याकुल
हमने  प्यार से उसे उठा सहलाया।
बंधी हुई रेशम की डोरी को हटाया।
नन्हीं गौरेया ने फिर आभार जताया।

अपने सुख के लिए मानव
जीवों को शिकार बनाता है
उसकी आजादी को छीन कर
आजादी का है जश्न मनाता।

मेरे आँगन में नन्हीं चिड़िया
दिन भर फुदकती रहती है।
नन्हें नन्हें पांवो से घर आँगन
दिन भर वह चहकती रहती है।

अगाथ प्रेम- विश्वास के साथ।
वह रोज सुबह होते आती है।
मेरे सिरहाने पर आकर गाती,
जो मेरे कानों को बड़ा सुहाती है।

सुन्दर सुन्दर फूलों की खुशबू से,
चिड़ियों की मीठी मीठी बोली से,
वन उपवन कितना पावन लगता।
बारिस की बूंदों से है सावन लगता।

पशु - पंछियो से है अपना संसार।
सभी करो पशु पंछियों  से प्यार।
अपनी खुशी के लिए इन जीवों पर
कभी नहीं करना कोई अत्याचार।


रवि शंकर साह - बलसारा, देवघर (झारखंड)

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