तुम्हे याद है न! - कविता - वरुण "विमला"

तुम्हें याद है वो सुबह!
जब तुम मेरी साइकिल पर,
बैठ गई थी ज़बरदस्ती।
मैं तो बिलकुल डर गया था, 
जैसे किसी चूहे की नज़रे,
बिल्ली से मिलने पर हो जाती है।
जिद कर रही थी मुझसे; 
कि देखना है नदी पे 
निकलता सूरज
लेकर तुम्हें निकला था उस पतली सी पगडंडी से,
जिसके दाये ओर धान
तो बाये ओर जोन्हरी की फसल लगे थे। 
तुमने अचानक ही ख़ुशी से चीखा था !
इतना खूबसूरत होता है?
धान के खेत पे सूरज की किरणों का दिखना। 
देखो! देखो! देखो न!
इस पर ओस की बूँद तो बिलकुल
मेरे कील के नग सा चमक रहा है,
और धान की बालियाँ मेरे सुनहरे झुमके से। 
तुम्हारी तेज चहचहाट से जाग गये थे
काका, जोन्हरी के खेत वाले मचान से। 
हम भागे थे जैसे;
कोई खरहा देख लेता है अचानक
कोई अपरचित। 
जब पहुचे थे हम नदी किनारे
सूरज बिखेर रहा था लाली,
जो तुम्हारे गालों की चमक बढ़ा रहा था
और तुम तो एकटक निहारती ही रही
सूरज को नदी में। 
जब तक वो उस छोर से बढ़ते-बढ़ते
तुम्हारे पास न पहुँच गया था। 
तुमने उठ के मेरे दिल से लग कर बोला था, 
ये लम्हा मेरे जीवन का सबसे अज़ीज़ लम्हा होगा !
तुम्हे याद है न!

वरुण "विमला" - बस्ती (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos