रावण ऐसे न जलता - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"

रावण ऐसे न जलता 
दशहरे के मेलों में
किसी एक ने पहचाना होता
श्री राम को दस चेहरों ने ।।
दम्भ और शक्ति के मद में
ईश्वर का अस्तित्व भुलाया था
खुद को ईश्वर समझ के आखिर
काल के ज्वाल को जगाया था ।।
सगरी लंका भस्म हो गयी
विकराल हुताशन ज्वालों में
न शेष बचा कोई भी दनु
निगला फिर काल के व्यालों ने ।।
सीता न हरी गयी होती
करके स्वर्ण मृग की माया को
अत्याचार से न पीड़ित करता
सृष्टि की पर काया को ।।
न उत्पात मचाया होता 
वसुधा का न करता त्रास
विद्वता की प्रतिमूर्ति होकर
नैतिक मूल्यों का न करता ह्रास ।।
विभीषण की मन्त्रणा का
न उपहास किया होता
राम नाम का दसकन्दर ने
न परिहास किया होता ।।
राम नाम को जो न समझा 
आखिर वो पछताया है
'सूर्य' सत्य की विजय सदा है
रामायण ने सिखाया है ।।

सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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