सफ़र के - ग़ज़ल - ममता शर्मा "अंचल"

खुद से मिलने की जिद कर के
बैठी हूँ नज़दीक भँवर के

आज सुकूँ से क़दम बढ़ रहे
खिलता है दिल, रोज़ निखर के

दोपहरी भी ठंडी लगती
खुश है दिल में, खुशी ठहर के

चलती हूँ  पर पाँव न थकते
बदले है अंदाज़ सफ़र के

जाने-पहचाने लगते हैं 
इन्सां इस अनजान नगर के

मिलते हैं पग-पग पर धोखे
खूब सदा सज और सँवर के

अलग - अलग फ़ितरत के इन्सां
सँग हैं कुछ, कुछ गए मुकर के

छोटी सी दुनिया है "अंचल"
रुकना मत दूरी से डर के।।।।

ममता शर्मा "अंचल" - अलवर (राजस्थान)

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