पाशविकता - गीत - संजय राजभर "समित"

नोंच-नोंच कर लूट लिए हैं,
          फिर एक अबला की जवानी। 
भीगी पलकें सुना रही हैं, 
           एक अनकही मौन कहानी।

छटपटायी हूँ रातभर मैं, 
            रौंदी गई हूँ दरिंदों से। 
क्यों धर्म की चादर ओढ़ के, 
            खेल रहे हैं उम्मीदों से। 

फटे-चिथड़े लट बिखरे हुए, 
           सभी वहशीपन के निशानी। 
भीगी पलकें सुना रही हैं, 
           एक अनकही मौन कहानी।

कुरआन गीता बाइबिल की, 
            रो-रो देती रही दुहाई।
भाई-बाप बनाया सबको,
            पर रिश्तें भी काम न आई ।

बिकी हुई है न्याय प्रणाली,
           पढ़ मेरे बदन पर जुबानी।
भीगी पलकें सुना रही हैं, 
           एक अनकही मौन कहानी।

कौन सगा है कौन पराया?
           सब हैं मेरे तन के प्यासे।
बच्ची से लेकर बूढ़ी तक, 
           अटक रही है सबकी साँसे।

जानवरों के जैसे बर्बर, 
           ये करते हैं शाम सुहानी। 
भीगी पलकें सुना रही हैं, 
           एक अनकही मौन कहानी।

संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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