जिस्म का लिबास रहो तुम - ग़ज़ल - मोहम्मद मुमताज़ हसन

यूं न तन्हा-उदास रहो तुम,
दिल के आसपास रहो तुम !

मिटा दो शक की सब तहरीरें,
रिश्तों का एहसास रहो तुम !

बेवफ़ाई को कर दर-किनार,
मोहब्बतों की प्यास रहो तुम !

'आम' बनो जहां के लिए चाहे,
हमारे वास्ते ख़ास रहो तुम !

बदन तेरी पनाह में रहे मेरा,
जिस्म का लिबास रहो तुम !

मोहम्मद मुमताज़ हसन - रिकाबगंज, टिकारी, गया (बिहार)

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