जीवन के प्रति सब का नजरिया, सबकी सोच अलग अलग है। बहुत से लोग भौतिक वस्तुओं को संग्रह करने को ही जीवन का सच मान लेते हैं और बहुत से लोग भौतिक वस्तुओं के त्याग में जीवन का सच मानते हैं।
परंतु सच तो यह है कि इंसान को अध्यात्मा वादी होना चाहिए। क्योंकि जीवन का सच ईश्वर प्राप्ति में है अर्थात अच्छे कर्मों में है, जिससे मन को शांति मिलती है एक सच्ची शांति।
लेकिन जीवन का एक दूसरा पहलू यह भी है कि नैतिक जिम्मेदारियों की पूर्ति के लिए एवं स्वयं के परिपालन के लिए कर्म योग से धन को भी कमाना अति आवश्यक है, एवं जरूरत भर का करना धन व वस्तुएँ संचय करना भी आवश्यक है, क्योंकि आप अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को अगर पूरा नहीं करोगे तो ईश्वर भी कभी खुश नहीं होगा।
जीवन का सच वस्तुओँ को संग्रह में नहीं है, परंतु जीवन जीने के लिए सभी चीजों की आवश्यकता तो रहती ही है।
यह आवश्यकता सीमा से अधिक हो तो अच्छा नहीं होता।
इन वस्तुओं के संग्रह की आदत जब अधिक बढ़ने लगती है तो यह दुख का कारण बनती है।
एक सीमा तक भौतिक वस्तुओं का संग्रह जो जीवन यापन, सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए आवश्यक है उतना संग्रह तो जरूरी है।
परंतु ज्यादा लालच परिवार, समाज और देश के लिए अच्छा नहीं है।
संतोष सबसे बड़ा धन है सबसे बड़ा सुख है।
जीवन का लक्ष्य धन संचय मे नही जीवन का लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति में है।
धन व वस्तुओ का संचय करने की प्रवत्ति अलग अलग उम्र के लोगों मे अलग अलग तरह होती है जो वक्त के साथ बदलती भी रहती है।
मानव जीवन के दो स्तर हैं दो पहलू हैं, एक वाह्य दूसरा आंतरिक, एक भौतिक दूसरा आत्मिक। इनमें से जिस की प्रधानता होती है उसी के अनुसार जीवन का स्वरूप बनता है। भौतिकवादी जीवन स्थूल दृष्टिकोण का प्रतिफल है और आध्यात्मिक जीवन मनुष्य की सूक्ष्म विवेक बुद्धि की अतःप्रेरणा पर अवलंबित है।
बाहर से देखने में भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं दिखता, क्योंकि शरीर के पोषण एवं निकटवर्ती स्वजनों के प्रति कर्तव्य पालन के लिए घर गृहस्थी की सभी जीवनोपयोगी वस्तुओं का संग्रह एवं उपार्जन करना पड़ता है, जो कि नैतिक दायित्व में आता है। उनकी मात्रा में न्यूनाधिकता हो सकती है पर अनिवार्य प्रक्रिया से छुटकारा किसी को भी नहीं मिल पाता।
वाह्य जीवन हर व्यक्ति का भौतिकवादी ही रहता है।
संसार की वस्तुओं के सौंदर्य और सुख को तलाश करते हुए उनके पीछे दौड़ने वाले लोग भौतिकवादी कहे जाते हैं। उनका यह दृष्टिकोण इसलिए अनुपयुक्त माना जाता है क्योंकि उसे अपनाने वाले को मृगतृष्णा की तरह आजीवन भटकते रहना पड़ता है, कभी शांति और संतोष के दर्शन नहीं होते।
बाहर का उनका ठाठ बाट देख कर लोग समझते हैं कि वह सुखी होंगे पर सच बात यह है कि वह अंदर से असंतुष्ट और अशांत ही होते हैं।
वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आकर्षण उनके प्रति अनावश्यक मोह आत्मघात के समान है एवं हानिकारक भी। मगर जरूरत भर की आवश्यकताओं की इच्छा करना एवं उनकी आपूर्ति तो जीवन जीने के लिए जरूरी भी है और उचित भी।
सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)