बुढ़ापा - कविता - ममता शर्मा "अंचल"

सुबह सुबह किसी ने द्वार खटखटाया, 
मैं लपककर आया,
जैसे ही दरवाजा खोला
तो सामने बुढ़ापा खड़ा था,
भीतर आने के लिए, 
जिद पर अड़ा था..

मैंने कहा :
"नहीं भाई! अभी नहीं
अभी तो मेरी उमर ही क्या है..''

वह  हँसा और बोला :
बेकार कि कोशिश ना कर,
मुझे रोकना नामुमकिन है... 

मैंने कहा :
"अभी तो कुछ दिन रहने दे,
अभी तक दूसरो के लिए जी रहा हूँ ..
अब अकल आई है तो कुछ दिन
अपने लिए और दोस्तों के साथ भी जीने दे..''

बुढ़ापा हँस कर बोला :
"अगर ऐसी बात है तो चिंता मत कर..
उम्र भले ही तेरी बढ़ेगी
मगर बुढ़ापा नहीं आएगा,
तू जब तक दोस्तों के साथ जीएगा
खुद को जवान ही पाएगा..


ममता शर्मा "अंचल" - अलवर (राजस्थान)

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