काश - कविता - अजय प्रसाद

कभी कभी मैं सोंचता हूँ 
आसपास जानवरो को देख कर 
काश ! मैं भी आदमी न हो कर 
अगर जानवर होता ।
तो कितना बेहतर होता ।
न भूत-भविष्य की चिंता 
न वर्तमान से खफ़ा ।
न धर्म, न जाति, न कोई रंगभेद 
न ऊँचे का दंभ न नीच होने का खेद ।
न करता किसी की चापलूसी 
न किसी से किसी की कानाफूसी ।
न ओहदे का अहंकार, न कोई भ्रष्टाचार 
न रैली, न चुनाव, न वोट, न कोई सरकार ।
न धन की लालसा, न छ्ल, कपट प्रपंच 
न नेता, न अफसर, न मुखिया, न सरपंच ।
न रिश्तों में खटपट, न रिश्तेदारी की झंझट 
न नौकरी, न व्यापार, न पढ़ालिखा बेरोजगार ।
न फ़ैशन की चाह, न लोक लाज़ की परवाह 
न ख्वाहिशें, न फ़रमाइशें, न ज़ोर, न आज़माईशें ।
न सुख में इतराना, न दुख में आँसू बहाना 
हर दिन, हर हाल में बस अपने दम पर जीना ।
कुदरत के करीब, न कोई अमीर, न कोई गरीब 
न है कोई खुशनसीब, न है कोई बदनसीब ।
सब जी रहें हैं, जो भी पैदा हुए जिस हाल में 
न सजदे, न शिकायतें, न किसी भी मलाल में ।


अजय प्रसाद - बर्दवान (पश्चिम बंगाल)

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