दर्द - कविता - सलिल सरोज

दर्द को भी
नदी की तरह बहना आना चाहिए
वर्ना एक जगह पर जमा होकर
यह दर्द, कीचड़ बन जाता है
जो गीला हो या सूखा है
बस केवल बदबू देता है

दर्द को सहेजने का मतलब है
किसी उमड़ती हुई नदी पर बाँध बनाना
जो आवेग और आवेश में आकर
किसी भी दिन बाँध को तोड़कर 
कितने की अन्जाने प्रान्तों में घुस सकता है
और एक दिन कोढ़,नहीं तो
नासूड़ बन सकता है

दर्द
अपने कर्मों की जमा-पूँजी है, या
सब जमा-पूँजी का कर्म है
लेकिन दोनो ही सूरतों में
यह टीस कम नहीं देता
या अपना प्रारब्ध बदल नहीं लेता

दर्द 
अगर बहकर निकल जाए 
तो क्या यह सुख बन जाता है?
या, फिर किसी संक्रामक रोग की तरह फैल जाता है?
जिससे दर्द बाँटने की हिमायत है
बात सोचने की है, कि 
दर्द को उससे कितनी राहत है

दर्द रूप बदल कर भी आता है
पहचाने वाले सतर्क रहें, तो भी क्या
दर्द का सामना करना इतना आसान नहीं होता,
जितना इसको भुलाना;
और इन्सान बहुत कुछ भूल कर
बहुत लम्बा जी सकता है।

सलिल सरोज - मुखर्जी नगर (नई दिल्ली)

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