तरक्क़ी ले रही कुर्बानियां साए की - ग़ज़ल - मोहम्मद मुमताज़ हसन

दिल्लगी का मुझे भी हुनर आ गया!
बेख़बर था  जो   बाख़बर आ गया!

तरक़्क़ी ले रही कुर्बानियां साये की,
ज़द में आज कोई शजर  आ गया!

जिधर देखूं नज़र तू ही तू आती है,
याद फिर वो सुहानासफ़र आ गया!

तन्हा रहा दुनिया की भीड़ में अक्सर,
मासूम हाथों में जब खंज़र आ गया!

वीरान हो गया आशियाना-ए- दिल
न जाने ये कैसा मंज़र आ गया

वफ़ा की चाहत में वफ़ा नहीं मिलती,
आशिके-ज़ख्म-दर्दे जिगर आ गया!

दर पे खुशियों की हुई आमद शायद,
'मुमताज़' दुआओं में असर आ गया!

मोहम्मद मुमताज़ हसन - रिकाबगंज, टिकारी, गया (बिहार)

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