पिघलते देखा - ग़ज़ल - ममता शर्मा "अंचल"

हमने आज मौकिन के पथ पर वाचालों को चलते देखा
जमी बर्फ़ को बिना धूप के खुद ही पिघलते देखा

जज्बों में उम्मीद जगी तो मायूसी की हुई विदाई
बहुत अचंभा हुआ, रात को दिन के लिए मचलते देखा

मिले अँधेरे और उजाले इक पल को, पर मिलते तो हैं
ऐसा मंज़र देख कुटिल को हाथ सदा ही मलते देखा

अहसासों में खुशी बसी तो जिस्म बावला हुआ अचानक
आलस छोड़ एक पल में ही नौ-नौ हाथ उछलते देखा

खुलकर नाचे अरमाँ दिल के,पता मिला उनको मंज़िल का
और अचानक बेहोशी को अपने आप सँभलते देखा।।।।

ममता शर्मा "अंचल" - अलवर (राजस्थान)

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