नेमत ए ज़िन्दगी - ग़ज़ल - महेश "अनजाना"

ये ज़िंदगी खुदा की नेमत है।
इसे जीे लेने  की जरूरत है।

ग़म व खुशी के पल में जियें,
ये धूप छाँव ही तो दौलत है।

जब तक जिये अपना बनके,
यही वफा, यही मोहब्बत है।

मंजिल की राह में अक्सर ही,
एक हमसफ़र  की हसरत है।

चाँद देखने तक, तो ठीक है,
पहलू में जाने  की चाहत है।

ये इत्तेफ़ाक़ है 'अनजाना' को, 
सर झुकाने की जो आदत है।

महेश "अनजाना" - जमालपुर (बिहार)

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