अपनी ज़बान से - ग़ज़ल - डॉ. यासमीन मूमल "यास्मीं"

डंका बजा के बोल दो सारे जहान से।
अब ज़ह्र कोई  उगले न अपनी ज़बान से।।

दुश्मन नज़र लगाते रहें कितनी भी मगर।
लहराएगा तिरंगा इसी आन बान से।।

लालच में आके ग़ैर का मत साथ दीजिए।
खेले न कोई अपने बुज़ुर्गों की आन से।।

हुब्बे वतन का जोश न हो जिसके ख़ून में।
उन सबको दूर  रखिये दिलों के मकान से।।

तक़रीर नफ़रतों की जो करता मिले यहाँ।
उसको  उतार  दीजिये  जाकर  मचान से।।

उनको सबक़ सिखाना ज़रूरी है दोस्तो।
पलटी जो मार  लेते  हैं  अपने बयान से।।

समझाए जाके कोई ये नेता के भक्त को।
होगा भला  न  देश का  झूठे  बखान से।।

नफ़रत की इस वतन में जो करते हैं खेतियाँ।
उनको निकाल फेंकिये हिन्दोस्तान से।।

हम "यास्मीन"आ गये जिस दिन भी मूड में।
दुश्मन हमारे देश के जाएँगे जान से।।

शब्दार्थ:
हुब्बे वतन - देशभक्ति | हिदायत - निर्देश

डॉ. यासमीन मूमल "यास्मीं" - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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