स्वस्थ लोकतंत्र की नींव है व्यंग्य - आलेख - सलिल सरोज

काव्यशास्त्र में शब्द की तीन शक्तियां विद्वत्जनों द्वारा स्वीकृत हैं। प्रथम ‘‘अभिधा’’ … जिससे सीधे-सीधे वाच्यार्थ की प्रतीति होती है। दूसरी शब्द शक्ति लक्षणा है, जिससे लक्ष्यार्थ का बोध होता है। तीसरी शब्द शक्ति व्यंजना है जिसमें व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है। व्यंजना शक्ति शब्द और अर्थ की वह शक्ति है जो अभिधादि शक्तियों के चूक जाने पर एक ऐसे अर्थ का बोध करवाती है जो विलक्षण और झकझोर देने वाला होता है। वस्तुतः व्यंग्य का मूल उद्देश्य व्यक्ति, वर्ग, विचारधारा, समाज या सामाजिक विसंगतियों पर कुठाराघात करना है। इसमें व्यंग्यकार तभी तो अपने विरोध या आक्रोश के द्वारा भ्रष्ट व्यक्ति, अनाचार, अनैतिकता, असंगति, विद्रूपता आदि की विडंबना पर करारा प्रहार करके संतुष्ट हो जाता है तो कभी विदू्रपित समाज की तस्वीर सामान्य समाज के समक्ष प्रस्तुत करके साधारण नागरिक को उसका यथार्थ बोध करवाता है। व्यंग्य को परिभाषित करने का भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने प्रयास किया है। जिनमें आचार्य द्विवेदी व्यंग्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘‘व्यंग्य वह है जहां कहने वाला अधरोष्ठ हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला रहा हो’’। सुप्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के अनुसार ‘‘व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, अत्याचारों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है।’’ पाश्चात्य चिंतक जॉनथन स्विफ्ट के अनुसार ‘‘व्यंग्य एक ऐसा दर्पण है जिसमें देखने वाले को अपने अतिरिक्त सभी का चेहरा दिखता है’’। जेम्स सदरलैण्ड व्यंग्य को समाज सुधार का अचूक अस्त्र सिद्ध करते हुए कहते हैं कि ‘‘व्यंग्य साहित्यिक अजायब घर में लुप्त डॉयनासोर या टैरोडैक्टायल की पीली पुरानी हड्डियों का ढांचा नहीं बल्कि एक जीवंत विधा है जिसे बीसवीं सदी के साहित्य में अहम् भूमिका अदा करनी है।’’ इसी संदर्भ में वक्रोक्ति संप्रदाय के आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए ‘‘वक्रोक्ति जीवितम्’’ ग्रंथ का प्रणयन किया। आचार्य ने वक्रोक्ति को ‘‘वैदग्ध्य भंगी भणिति’’ अर्थात् कवि कर्म-कौशल से उत्पन्न वैचिर्त्यपूर्ण कथन के रूप में स्वीकार किया है, अर्थात् जो काव्य तत्त्व किसी कथन में लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न करे उसका नाम वक्रोक्ति है।हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, नरेंद्र कोहली, शेर जंग गर्ग, रविंद्र त्यागी, शंकर पुणातांबेकर, डा. शिव शर्मा, डा. जन्मजेय, रतन सिंह हिमेश, अशोक गौतम, गुरमीत बेदी, सुदर्शन वशिष्ठ, संतोष नूर जैसे साहित्यकारों ने व्यंग्य के क्षेत्र में साहित्य की श्री वृद्धि की है।अन्याय, असत्य, अत्याचार, अनाचार-विकार-विसंगतियों, आडंबर व पाखंड के खिलाफ  व्यंग्य विधा अत्यंत द्रुत गति से आक्रमण करके मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने, राष्ट्रीय समरसता के लिए कार्य करती है।

व्यंग्य और हास्य अथवा कॉमेडी साहित्य की बहुत लोकप्रिय विधाएं हैं जिनमें हास्य द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। निःसंदेह दोनों में हास्य-तत्त्व विद्यमान होता है, परंतु कॉमेडी और व्यंग्य की  तकनीक, शिल्प, शैली और लक्ष्य में बहुत अंतर होता है। व्यंग्य के पाठक-दर्शक हमेशा उन्हीं कारणों से नहीं हंसते हैं जिन कारणों से कॉमेडी के दर्शक हंसते हैं। कॉमेडी अथवा हास्य एक नाटकीय रचना है जिसका प्रमुख उद्देश्य ही हंसाना और कहानी को सुखांतक बनाना है। कॉमेडी को दो वर्गों में रखा जा सकता है : उच्च और निम्न। निम्न वर्ग की कॉमेडी का प्रमुख उद्देश्य मात्र हंसी पैदा करना होता है और इसके अतिरिक्त अन्य कोई उद्देश्य नहीं होता, जबकि उच्च वर्ग की कॉमेडी का प्रमुख लक्ष्य सामाजिक आलोचना करना होता है। व्यंग्य उच्च श्रेणी में आता है। और यही व्यंग्य हास्य और कॉमेडी हास्य के बीच मुख्य अंतर है। व्यंग्य भी पाठकों-दर्शकों को हंसाने की शक्ति रखता है, किंतु व्यंग्य का लक्ष्य समाज में व्याप्त आडंबर, कुरीतियों, विद्रूपताओं और विषमताओं को उजागर करना और उनकी सम्यक आलोचना करना है। एक प्रभावी व्यंग्य रचना में विडंबना, रूपक, व्यंजना, अतिशयोक्ति, विरोधाभास और अनेकार्थी शब्दों के प्रयोग से हास्य उत्पन्न करने के साथ-साथ पाठक-दर्शक के हृदय में सामाजिक कर्त्तव्य का बोध जगाने की क्षमता भी होती है। हास्य परिस्थितिजन्य होता है, जबकि व्यंग्य आलोचनात्म्क एवं प्रतिक्रियात्मक होता है।

भारत के प्रसिद्द व्यंग्यकारों की प्रथम पंक्ति में जो दृश्यमान होते हैं वो हैं हरिशंकर परसाई। हरिशंकर परसाई "ठिठुरता लोकतंत्र " जो करारा व्यंग्य करते हैं ,वह चिर कालीन है और व्यंग्य, समाज को क्या आईना दिखाता है ,वह सटीक रूप में सामने निकल कर आता है।  वो लिखते हैं -"स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है। ' इसी क्रम में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित श्री लाल शुक्ल अपनी पुस्तक " राग दरबारी" में भारतीय समाज में व्याप्त असमानता पर पुरजोर प्रहार करते हैं। व्यंग्य प्रधान उपन्यास में ग्रामीण भारत और सरकारी तंत्र का जो खाका शुक्ल जी ने खींचा है, उसकी बराबरी नहीं हो सकती। ‘राग दरबारी’ के व्यंग्य आज के समय में भी उतने ही खरे और चोट करने वाले हैं। शिक्षा प्रणाली पर चोट करते हुए श्रीलाल शुक्ल जो लिखते हैं ,उस से आज भारतीय समाज का हर वर्ग सरोकार रखता है वर्ना सरकारी विद्यालयों की जो स्थिति है और जिस तरह से शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है ,वो इतना कष्टकर नहीं होता। वो लिखते हैं- " वर्तमान शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है ,जिसे कोई भी लात मार सकता है।" और इसी विधा के एक और महत्वपूर्ण कड़ी हैं शरद जोशी ,जिन्होनें अपनी साधारण भाषा-शैली से असाधारण व्यंग्य को जन्म दिया। शरद जोशी , "जिसके हम मामा हैं" में क्या खूब लिखते हैं -" भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी ऊहापोह वाली स्थिति है मित्रो! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुझे नहीं पहचाना? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं - क्यों साहब, वह कहीं आपको नजर आया? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।पाँच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।" इन्हीं लहजों में मुझे मशहूर शेऱ याद आता है जो मीडिया के दोगलेपन और राजनेताओं की असंजीदगी पर करारा चोट करता है।

तुम्हारी बज़्म से बाहर भी एक दुनिया है
मेरे हुज़ूर बड़ा जुर्म है ये बेख़बरी
-ताज भोपाली

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था
-हबीब जालिब

कटाक्ष करने के असीम क्षमता और व्यंग्य की गहराइयों में उतर कर अदम गोंडवी लिखते हैं जो देश की बाढ़ से उत्पन्न समस्याओं का चित्रण करती है और देश के हुक्मरानों से तीखे सवाल करती है।
"विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है
बूढ़े बरगद के वल्‍कल पर सदियों का इतिहास लिखा है "

व्यंग्य में कहीं न कहीं विद्रोह का स्वर भी होता है ,लेकिन वह विद्रोह होता है तंत्र को ठीक करने के लिए ना कि उपहास मात्र के लिए।  व्यंग्य अगर विद्रोह का शोर ना उत्पन्न कर सके तो इस विधा का ह्रास होता चला जाएगा। यहाँ हम रमाशंकर यादव " विद्रोही " की कविता का वर्णन जरूर करें ताकि यह स्पष्ट हो सके कि व्यंग्य और क्रोध मिलाकर क्या पैदा कर सकते हैं।

‘मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा’

और जो सबसे प्रभावशाली गीतबद्ध कविताओं में व्यंग्य और चोट करने में माहिर नज़र आते हैं, वो हैं रामधारी सिंह दिनकर। " समर शेष है " में समाज में निहित विफलताओं का चाहे वो आज की बात हो या कई सदियों पूर्व की , दिनकर पूरी मुस्तैदी से प्रहार करते हैं और हर पढ़े-लिखे व्यक्ति को सोचने पर मजबूर करते हैं।

"अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली !तू क्या कहती है ?
तू रानी बन गई , वेदना जनता क्योँ सहती है ?
सबके भाग दबा रक्खे है किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा , हुई बंदिनी ,बता , किस घर में ?
समर शेष है, यह प्रकाश बंदी गृह से छुटेगा ,
और नहीं तो तुझ पर भी पापिन! महावज्र टूटेगा /
समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा /
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुचाना होगा/
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए है ,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए है,
कह दो उनसे,झुके अगर तो जग में यश पायेंगे ,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों से बह जायेंगे /
और
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ ...
जो तटस्थ हैं ...समय लिखेगा उनका भी अपराध !"

प्रसिद्घ नाटककार, रंगकर्मी डॉ. वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता कहते हैं -"व्यंग्य ऐसी विधा है जिसमें परतें खुलती है, आज सही मायने में व्यंग्यकार कहीं गुम हो रहा है, राजनीतिक पक्ष उस पर हावी है, व्यंग्य स्वाधीनता में पनपता है। प्रेम जनमेजय ने कहा कि-कबीर जैसा व्यंग्यकार आज भी कोई और नहीं है। व्यंग्य करना तो आसान है किन्तु व्यंग्य सुनना बेहद मुश्किल होता है। जब विरोध का स्वर मुखरित होता है तो व्यंग्य उत्पन्न होता है।" आज राजनीति में हास्य का पुट घटने की बात करें तो शायद पूरा समाज ही इस तरह का बनता जा रहा है कि अपने पर हंसने वालों की संख्या तेजा से घटती जा रही है। राजनीतिक दलों के नेता अब परस्पर प्रतिद्वंद्वी नहीं रह गए हैं। राजनीतिक विरोध ने दुश्मनी की शक्ल अख्तियार कर ली है। विभिन्न दलों के नेता सार्वजनिक स्थानों पर एक दूसरे से मिलने से भी कतराते हैं। संसद में तो स्थिति और बुरी है। हास्य, कटाक्ष या फब्ती कसने वाला माहौल रहा ही नहीं। भारतीय संसद हमेशा से ऐसा नहीं रही है।संसद की कार्यवाही का एक बड़ा मशहूर किस्सा है। 1962 में चीन से युद्ध में हार के बाद सदन में इस मसले पर चर्चा हो रही थी। पूरे सदन में तनाव का माहौल था। अक्साई चिन पर चीन के कब्जे की बात उठी तो उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कह दिया कि अक्साई चिन चला गया तो क्या हुआ वहां तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता था। महावीर त्यागी खड़े हुए और नेहरू जी के गंजे सिर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि उगता तो इस पर भी कुछ नहीं है। क्या इसे काटकर किसी को दे दिया जाए? पूरा सदन ठहाकों से गूंज गया। हंसने वालों में नेहरू जी भी शामिल थे। आज इस तरह के मजाक को कौन बर्दाश्त करेगा? एक किस्सा जेबी कृपलानी का है। कृपलानी जी सदन में कांग्रेस की लगातार आलोचना किए जा रहे थे। पास बैठे एक सदस्य ने याद दिलाया कि आपकी पत्नी (सुचेता कृपलानी) भी कांग्रेस में हैं। कृपलानी बोले, मुझे अभी तक लगता था कि कांग्रेसी बेवकूफ हैं। अब लगता है कि ये गैंगस्टर भी हैं। दूसरे की पत्नी लेकर भाग जाते हैं। स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक पीलू मोदी किसी भी समय सदन का माहौल हल्का करने में माहिर थे, लेकिन अपनी अंग्रेजी की महारत से वह कई बार पीठीसीन अघिकारी के कोप से बच भी जाते थे। एक बार पीलू सदन में बोल रहे थे। जेसी जैन उन्हें लगातार टोक रहे थे। पीलू मोदी ने झल्लाकर कहा स्टॉप बार्किंग (भौंकना बंद करो)। जैन ने आपत्ति की कि उन्हें कुत्ता कहा जा रहा है। इस पर पीठासीन अधिकारी ने इस टिप्पणी को कार्यवाही से निकाल दिया। पीलू कहां चुप रहने वाले। उन्होंने फिर कहा देन स्टॉप ब्रेयिंग (गधे की तरह रेंकना)। जैन की समझ में नहीं आया और यह टिप्पणी कार्यवाही का हिस्सा रह गई। पीलू मोदी अपने पर भी हंस सकते थे। एक दिन सदन में उन्हें एक सदस्य ने टोका कि पीठासीन अधिकारी की तरफ अपनी बैक (पीठ) करके मत बोलिए। भारी भरकम शरीर वाले पीलू मोदी का तपाक से जवाब आया, मैं तो गोल हूं।

लोकतंत्र में व्यंग्य बहुत ही जरूरी है।  व्यंग्य करने की समझ अगर हासिल हो जाए तो समस्याएँ बातों -बातों में पूरे जोर के साथ कही जा सकती है।  दशकों पहले परसाई जी के द्वारा लिखी बातें आज भी सौ प्रतिशत सही नज़र आती है क्योंकि व्यंग्य वर्तमान को नहीं बल्कि भविष्य की समस्याओं को भी उजागर करता है। वो लिखते हैं -"मैं देख रहा हूं कि नई पीढ़ी अपने ऊपर की पीढ़ी से ज्यादा जड़ और दकियानूसी हो गई है। दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है।  यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है।  हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है।  इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है। जनता जब आर्थिक न्याय की मांग करती है, तब उसे किसी दूसरी चीज में उलझा देना चाहिए, नहीं तो वह खतरनाक हो जाती है. जनता कहती है हमारी मांग है महंगाई बंद हो, मुनाफाखोरी बंद हो, वेतन बढ़े, शोषण बंद हो, तब हम उससे कहते हैं कि नहीं, तुम्हारी बुनियादी मांग गोरक्षा है। बच्चा, आर्थिक क्रांति की तरफ बढ़ती जनता को हम रास्ते में ही गाय के खूंटे से बांध देते हैं। "

व्यंग्यकार के रूप में जितना सजग अपने विषय के चुनाव में होना चाहिए, उतना ही इस बारे में भी कि किसपर व्यंग्य करना है और किसपर नहीं । मजबूर पर कभी व्यंग्य न करें । मारे हुए को मारना कोई बहादुरी नहीं है । किसको निशाना बना रहे हैं, जितना जानना यह आवश्यक है, उतना ही यह ज्ञान भी आवश्यक है किसलिए निशाना बना रहे हैं । आपमें वह क्षमता है आप किसी पर भी प्रहार कर सकते हैं, आपकी दृष्टि को पैना होना पड़ेगा, यह दृष्टि आपमें विकसित हो, ऐसे प्रयास जारी रखने की आज बेहद आवश्यकता है ।

अभी हाल में ही प्रकाशित हुई  पियूष पाण्डेय की किताब धंधे मातरम को पढ़कर व्यंग्य के सुख में डूबा जा सकता है। अपनी इस किताब में पीयूष पाण्डेय सामाजिक और राजनीतिक उपेक्षाओं के शिकार और उनसे परेशान लोगों की स्थितियों का बढ़िया विश्लेषण करते हैं। पीयूष पांडे की रचना धंधे मातरम धंधे को नए रूप में परिभाषित करती है। धंधा ही अपनी संजीवनी है जो मृत प्राय में प्राण फूंक देती है फिर धंधा चाहे कोई भी हो। धर्म और जाति को लेकर जो बड़ी-बड़ी दलीलें देते हैं वे भी जब अपने-अपने कार्यक्षेत्र में वादा खिलाफी करते हैं तब वंदे मातरम बहुत पीछे रह जाता है और धंधे मातरम की जीत होती है।  पीयूष ने एक पागल से मुलाकात के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि धर्म-जात, राष्ट्र-संविधान, सबको धंधा बना दिया है लोगों ने। और जब धंधा ही बना दिया है तो बोलो धंधे मातरम। वंदे मातरम बोलने की औकात नही है। व्यंग्य अंततः सहारा देता है, हारे हुए आदमी को। ताव देनेवाले आदमी पर ताव खा जाता है। व्यंग्य देखता है कि धंधा क्या चल रहा है। इस लिहाज से 'धंधे मातरम्' एक पठनीय व्यंग्य-संग्रह है, जो सजी-धजी भाषा में नहीं है, बल्कि भाषा को नई सज-धज प्रदान करता है। पीयूष की अपनी शैली है, जिसमें वो व्यंग्य करते हैं। वर्तमान राजनीतिक माहौल में 'अ' से असहिष्णुता, 'आ' से आतंकवाद का नया ककहरा रचते हैं। यानी व्यंग्य को लेकर उनकी अलग दृष्टि है, जो पाठकों को आनंद देगी और सोचने के लिए विवश भी करेगी।

व्यंग्यकार की उंगलियां हमेशा समाज की नब्ज पर रहती हैं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में क्या पल रहा है, इसकी एक व्यंग्यकार बराबर टोह लेता रहता है। व्यंग्यकार समाज का पहरेदार है। व्यंग्यकार लकीर के फकीर न होकर नए समय के नए सवालों की गंभीरता से पड़ताल व विवेचन करते हुए सच्चाई को निडरता से सामने लाने का रचनाधर्म निभाते हैं।व्यंग्य के रूपक और चित्र-विधान अगर आम जनजीवन से लिए हुए हों और भाषा में इतना दम व धार हो कि वह सीधे पाठकों के मर्म को भेदकर उसे मर्माहत और बेचैन कर दे तो व्यंग्य का असर कई गुणा बढ़ जाता है। व्यंग्यकार की भाषा की सहजता और जीवंतता पर ही व्यंग्य टिका रहता है और जहां भाषा व शिल्प कमजोर हुआ नहीं कि व्यंग्य महज सपाट बयानी बनकर रह जाता है।

सलिल सरोज - मुखर्जी नगर (नई दिल्ली)

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