उन दिनों की बात - कविता - शेखर कुमार रंजन

ये उन दिनों की बात है,
जब मिलकर हमलोग रहते थे
समस्याए अपनी-अपनी सभी,
एक दूजे से कहते रहते थे।

चोट एक को भी लगे तो,
दर्द सभी को होते थे
अगर मिल जाते सभी एक रात,
तो सारी-सारी रात ना सोते थे।

ये उन दिनों की बात है,
जब मिलकर हमलोग रहते थे
छुप-छुप कर घर से हम सभी,
मिलकर शरारत करते थे।

हर रोज एक दूसरे से,
यू ही मिला करते थे
बिना सोचे समझे हम सभी,
मिलों पैदल चला करते थे।

ये उन दिनों की बात है,
जब मिलकर हमलोग रहते थे
तब थी सबके अंदर ज़िगर,
सभी साथ बैठ हँसते-रोते थे।

सबके पास थी तब भी तकलीफें,
फिर मिलकर उन्हें भूल जाते थे
ना जाने कितने रातें हमलोग,
यू ही घूमते हुए बिताते थे।

ये उन दिनों की बात है,
जब मिलकर हमलोग रहते थे
हर पर्व त्योहार साथ मनाते,
एक साथ बैठ सब खाते थे।

सभी मस्ती मजाक आपस में,
करते हुए नहीं थकते रहते थे
रोज एक नया योजना बनाकर,
लड़ाई-झगड़े की बातें करते थे।

ये उन दिनों की बात है,
जब किसी के पास पैसे न होते थे
फिर भी सभी बैठ टिकोले,
तोड़-तोड़ कर खाते थे।

ये उन दिनों की बात है,
जब गलतियाँ शौक से करते थे 
फिर सजा मिलने के डर से,
घर जाने से सभी डरते थे।

ये उन दिनों की बात है,
जब कोई किसी की आलोचना,
नहीं करते नहीं सुनते थे,
नई-नई सपने साथ में बुनते थे।

ये उन दिनों की बात है,
जब एक दूसरे से मिले बिना,
एक दिन भी रहा न करते थे
कितने? प्यार से जिया करते थे।

शेखर कुमार रंजन - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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