खड़ा हूँ,
सड़क के किनारे,
दोनों बाहें पसारे,
ज़िन्दगी के उलझे,
तारो को संभाले।
दिन भर देखता हूँ
दौड़ती भागती,
गिरती पड़ती,
ज़िन्दगी को,
जूझते हुए।
रात में
पच्चीस वाट
के बल्ब के
मरियल रौशनी तले
दिनभर की,
थकी हुई ज़िन्दगी को,
उखड़ी सांसो के साथ,
पसरे हुए।
इस पसरी हुई ज़िन्दगी
से भी कुछ-कुछ निकालने,
के जुगत में,
घूमते लोगो को
देखता हूँ
मैं पोल हूँ।
राजीव कुमार - जगदंबा नगर, बेतिया (बिहार)