प्यार की परिभाषा - आलेख - अतुल पाठक

प्यार की वैसे तो सही मायने में कोई परिभाषा नहीं बनी आजतक। लेकिन प्यार को कई रूपों में समझा जाता है।
मातपिता का बच्चों के प्रति असीम स्नेह भी प्यार है। दोस्तों में निःस्वार्थ आपसी समझ विश्वास के साथ सहयोग की भावना रखना भी प्रेम है जिसमें हर सुख-दुख में दोस्त साझेदार होते हैं। भाई-बहनों में भी जो कभी नोंक-झोंक करते हैं तो कभी फिर से एक हो जाते हैं एक दूसरे से बातें किये बिना रह पाना भी प्यार है।
प्यार का कोई एक रूप नहीं प्यार के कई रूप हैं।
प्यार वो भावना है जो कई बार इंसान की सोच पर भी निर्भर करती है कि प्यार के भाव सोच के तरह आज बदलने लगे हैं। 

प्यार हक़ीक़त में बहुत कम और किताबों में ज्यादा मिलता है शेर-शायरी कविता में प्यार मिल जाता है पर क्या कभी सोचा है कल्पना से परे होकर प्यार को किसी ने वास्तविक ज़िन्दगी में महसूस किया है कभी।

प्यार के मायने आज कपड़ों की तरह बदलने लगे हैं यही जीवन का कड़वा सच है। आज लोग सिर्फ मतलब के लिए रिश्ते नाते बनाते हैं और महज़ आकर्षण ही प्यार समझ लिया जाता है और फिर प्यार धोखा बन जाता है।

प्यार सिर्फ आकर्षण का नाम नहीं। प्यार को समझा जाए तो ज़िन्दगी कम पड़ जाएगी। प्यार वहीं होता है जहाँ मर्यादा होती है इज़्ज़त होती है अटूट विश्वास होता है प्यार के लिए त्याग भी करना पड़ जाए तो पीछे न हटना।

प्यार सादगी ढूंढता है जिसमें दिखावा नहीं होता इंसान का अपनापन होता है। अनन्त भावों की तस्वीर बनने लगती है दिल में। जब प्यार हो जाता है हमें किसी ख़ास से तो उसके बिना एक पल भी रह पाना शायद बड़ी मुश्किल होता है। ऐसा लगता है शायद प्यार में इंतिज़ार एक सज़ा सा है। प्यार हम जिससे करें उसे समझना भी चाहिए क्योंकि जहाँ आपसी समझ नहीं मिलती वहाँ प्यार सिर्फ नाम मात्र ही रह जाता है। प्यार को किया नहीं प्यार को जीया भी जाता है।

अतुल पाठक - जनपद हाथरस - (उत्तर प्रदेश)

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