नासमझ दिल - कविता - शेखर कुमार रंजन

ऐ मेरे दिल की धड़कन,
तू इतना बेकरार क्यों?हैं
कैसा है? ये दिल का दर्द
कैसी है? ये एहसास तुम्हारी।

लगता है कि मुझे हो गया है,
ऐ जानेमन तुमसे बेइंतहा प्यार
तुम बिन रहा न जाए अब,
कैसी? ये दिवानगी हैं।

क्यों? तुम्हारे बारे में हरपल,
सोचता रहता है ये पागल दिल
क्यों? तुम्हारे संग रहने पर,
सूकून और चैन मिलता है।

क्यों तुम साथ होती हो तो,
समय का पता नहीं चलता है
क्यों? मैं चाहता हूँ कि समय,
थम जाए जब हम साथ में हो।

क्यों? तेरे जाने के बाद से ही मैं,
तेरे आने का इंतज़ार करता हूँ
क्यों? तुमसे मिलने को हरदम,
ये दिल बेकरार रहता हैं।

क्यों आखिर तुम से, 
लिपटने को दिल चाहता है
क्यों? तुम्हारी हर तकलीफ़,
हरने को दिल चाहता हैं।

क्यों? हर खुशी में तुम्हें,
शरीक करना  चाहता हूँ
क्यों? तुम्हारी उंगलियों में अपनी,
उंगलियाँ फँसाना चाहता हूँ।

क्यों? तुम्हारी हाथों में हाथ रख,
प्यार की बातें करना चाहता हूँ
क्यों? तुम्हारी साँसों में अपनी,
साँसों को भरना चाहता हूँ।

क्यों? अपनी हर दुआओं में, 
बस तुम्हें ही मांगा करता हूँ
क्यों? सोने के बाद तुम्हें,
सपनों में देखना चाहता हूँ।

क्यों? जागने के बाद तुम्हारा,
चेहरा देखना चाहता हूँ
जब भी तुम्हें देखता हूँ तो,
बेहाल क्यों? हो जाता हूँ।

क्यों? करती हो नजरों से कत्ल,
ऐ कातिल दिल बता  ज़रा
आख़िरकार मार ही डालोगी क्या,
अपनी यादों में मुझे सताकर।

सोचता हूँ कि बहुत हुआ,
अब तुम्हें याद नहीं करूँगा
पर क्या? करूँ पागल दिल को,
बिलकुल ही नागवार होता हैं।

शेखर कुमार रंजन - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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