ठीक से नहीं पिरोता हूँ क्योंकि
मुझे डर लगता है कि कहिं,
जज्बात में कलम ना रो परे।
मैं अपनी जज्बातों को शब्दों में,
ठीक से नहीं पिरोता हूँ क्योंकि
मुझे डर लगता है कि आँसुओं से,
किताब के पन्ने ना गल जाएँ।
मैं अपनी जज्बातों को शब्दों में,
ठीक से नहीं पिरोता हूँ क्योंकि
मुझे डर लगता हैं कि पढ़ने वाले,
कहिं सिसक-सिसक कर रो ना दे।
मैं अपनी जज्बातों को शब्दों में,
ठीक से नहीं पिरोता हूँ क्योंकि
मुझे डर लगता हैं कि सुनने वाले,
अश्रु धारा ना बहाने लगे।
मैं अपनी जज्बातों को शब्दों में,
ठीक से नहीं पिरोता हूँ क्योंकि
मुझे डर लगता है कि कहिं,
जज्बात में कलम रो ना परे।
शेखर कुमार रंजन - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)