और समय ने उलझाया बस हमें सवालों में।
जिनकी दम थी बुरे वक्त में साथ निभायेंगे,
पता नहीं वह कहां खो गए कौन उजालों में।
अच्छे दिन कैसे होते हैं हम कैसे बतलायें,
यह चर्चा तो आम रही है यहां दलालों में।
हक की रोटी मिल न पाई कौन करे सुनवाई,
बंद पड़ी है वह तो जाने किसके तालों में।
मेहनतकश का गणित यहां तो सदा रहा है फ़ैल,
बिका पसीना एक बार फिर निर्दयी चालों में।
जीवन कितना महंगा है और मौत हुई सस्ती,
तभी तो हमने बहता देखा खून को नालों में।
कोई भी हो समय और हो चाहे विपदा भारी,
बंदरबांट सदा होता है दिल के कालों में।
दुख बांटेगा कोई आकर हमें भरोसा है,
अपना नाम लिखा देंगे फिर किस्मत वालों में।
सतीश श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)