बाढ़ का किनारा - कविता - राजीव कुमार

मैं हूँ, बाढ़ का किनारा, 
चुपचाप देखता हूँ,
दूर बहती, नदी की धारा ! 
मैं हूँ बाढ़ का किनारा ! 
पिछले वर्ष की बात है
वह उमड़ कर आयी थी,
मेरे वजूद से टकरायी थी ।
मेरे चौड़े चकले, सपाट सीने को
क्षत विक्षत कर गई, कई जगह 
गजदंत मुखी भी ! 
मेरे सामने कोसो तक फैले है दल-दल!
जिनके गढ़ो में, ठहरा है आज भी,
पिछले बरस का, बाढ़ का पानी 
जिसकी बास, मेरे नथुने तक,
आती है, मुझे तड़पाती है !
लेकिन, इधर कोई भी नही आता, 
सब दूर से, निकल जाते हैं !
शायद, उन्हें याद आ जाते है, श्रीराम
जिन्हें, जल समाधी लेनी पड़ी थी !
याद आ जाती है, माँ सीता 
जिन्हें, ज़मीन में दफ़न होना पड़ा था !
वस्तुतः कोसो फैले दल-दल
और गड्ढों में ठहरा, पिछले बरस का 
बाढ़ का पानी, और कुछ नही,
युग प्रवाह में, छोड़े गए आदर्श है,
डर है, इस बार वो आयेगी,
मेरा वजूद ही, मिटा जायेगी !
लेकिन, मैं बना रहना चाहता हूँ 
बाढ़ का किनारा !
चुपचाप, देखता रहना चाहता हूँ, 
दूर बहती, नदी की धारा
मैं हूँ, बाढ़ का किनारा !


राजीव कुमार - जगदंबा नगर, बेतिया (बिहार)

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