मुद्दतों बाद मेरे जज़्बातों को जगा गया कोई।
डूबे हैं कई बेगुनाह दरिया -ए- हयात में
बहर-ए-तलातुम में भी किनारा पा गया कोई।
भूख से हलकान है मजलूम तिरे आतिश-ए-शहर में
गुर्बत में हक का निवाला भी खा गया कोई ।
घरों में कैद है जिंदगी फिज़ाओं में पसरा है सन्नाटा
अकड़ना छोड़ दे अब, तेरी औकात बता गया कोई।
ख़ामोश हैं बुत तो तानकर चादर सो गया खुदा भी
मंजर -ए -तबाही में अपना ईमान दिखा गया कोई ।
यूं तो मोजूं है अर्श पे तिरे कदम-ए-मर्दुम-ए-कामिल
मगर दिखाकर रुतबा , तेरी हस्ती मिटा गया कोई ।
वक्त-ए-अज़ल पर यह कैसा मंजर है ए- खुदा
जिंदा आदमी का गोश्त जानवर खा गया कोई ।
टूटे हैं हौंसले मगर ख्वाहिशें जिंदा रख -ए-"योगी"
दहश़त- ए - दश्त़ में भी रास्ता दिखा गया कोई ।
शब्दार्थ :
मुद्दत - काफी समय बाद | जज़्बात - दिल के अरमान | दरिया ए हयात - जीवन रूपी नदी या समुद्र | बाहर ए तलतुम - समुद्र की बाढ या लहरें | हालकान- परेशान, व्याकुल | मजलूम - गरीब | आतिश ए शहर - चमकता नगर | गुरबत - निर्धनता, परदेश | फिजा - हवाएं, मौसम | अर्श - आसमान | कदम ए मर्दुम ए कामिल - अंतरिक्ष पर मानव के पद चिह्न | वक्त ए अजल - मृत्यु का समय | गोश्त - मांस | दहशत ए दश्त - डर का जंगल, भयानक वन
अशोक योगी शास्त्री - कालबा, नारनौल (हरियाणा)