तेरी औकात बता गया कोई - ग़ज़ल - अशोक योगी शास्त्री

सोए  हुए  मेरे    ख्वाबों  में   आ   गया कोई
मुद्दतों बाद मेरे जज़्बातों को जगा गया कोई।

डूबे  हैं  कई   बेगुनाह   दरिया -ए- हयात  में
बहर-ए-तलातुम में भी किनारा पा गया कोई।

भूख से हलकान है मजलूम तिरे आतिश-ए-शहर में
गुर्बत  में  हक  का  निवाला  भी  खा  गया  कोई ।

घरों में कैद है जिंदगी फिज़ाओं में पसरा है सन्नाटा
अकड़ना छोड़ दे अब, तेरी औकात बता गया कोई।

ख़ामोश हैं बुत तो तानकर चादर सो गया  खुदा भी
मंजर -ए -तबाही में अपना  ईमान दिखा गया कोई ।

यूं तो मोजूं है अर्श पे तिरे कदम-ए-मर्दुम-ए-कामिल
मगर दिखाकर रुतबा , तेरी हस्ती मिटा गया  कोई ।

वक्त-ए-अज़ल  पर  यह  कैसा  मंजर  है ए- खुदा
जिंदा आदमी  का गोश्त  जानवर  खा  गया कोई ।

टूटे हैं हौंसले मगर ख्वाहिशें जिंदा रख -ए-"योगी"
दहश़त- ए - दश्त़ में  भी रास्ता  दिखा गया  कोई ।

शब्दार्थ :
मुद्दत - काफी समय बाद | जज़्बात - दिल के अरमान | दरिया ए हयात - जीवन रूपी नदी या समुद्र | बाहर ए तलतुम - समुद्र की बाढ या लहरें | हालकान- परेशान, व्याकुल | मजलूम - गरीब | आतिश ए शहर - चमकता नगर | गुरबत - निर्धनता, परदेश | फिजा - हवाएं, मौसम | अर्श - आसमान | कदम ए मर्दुम ए कामिल - अंतरिक्ष पर मानव के पद चिह्न | वक्त ए अजल - मृत्यु का समय | गोश्त - मांस | दहशत ए दश्त - डर का जंगल, भयानक वन

अशोक योगी शास्त्री - कालबा, नारनौल (हरियाणा)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos