बस यही जीत है मेरी - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

तुम्हारे न होने के बाद भी,
तुम्हारे होने का अहसास।
शायद यही है वह अंतर्चेतना,
जिसने मेरे भौतिक आकार को,
अब तक धरती से बांधे रखा है।
देह का मरना कहाँ  मरना ,
भाव का अवसान ही तो मृत्यु है।
शायद तुमको अब तक याद होगा, 
बहुत सी ख्वाहिशों के साथ,
जी रही थी मगर अब चल पड़ी।
जिस राह वह रास्ता अनंत है,
कभी-कभी अपनी नादानियों पर,
बहुत हंस लेने को दिल करता है,
तो कभी सांस लेने को भी  नहीं ।
सच तो यह है कि हर फूल का,
दिल भी तो छलनी छलनी है ।
अंत  मेरे हाथ लगना है  बस ,
वो हवा में लिखी अनकही बातें,
वो साथ साथ देखें अधूरे ख्वाब।
अब कोई आहट कोई आवाज,
कोई पुकार नहीं  तुम्हारी !
अब किसी उम्मीद से नहीं देखती,
घर के दरवाजे को मगर अब ,
खुद के भीतर ही तुम को पा लेना,
बस यही जीत है मेरी ,
बस यही जीत है मेरी।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम , लखनऊ (उ०प्र०)

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