ये क्या नया हैं - कविता - जितेन्द्र कुमार


ये अश्रु  वो  नीर  है,
जो वेदना को सींचते|
पलकों से निर्झरणी,
औ' शबनम बन जाते|
न पूछो और क्या है?
अरे! ये क्या नया हैं!

शबनम की सभी बूंदे,
दूर क्षितिज को जाती|
अदृश्य इस अनंत में,
रब को बखान आती|
तो भी कोई दया  है?
अरे! ये क्या नया हैं!

नियति के ये तकाज़े,
कुटिल रेखा में सोते|
गर्दिश के पल में भी,
बड़े निष्ठुर सिद्ध होते|
इसकी कोई बयां है?
अरे! ये क्या नया हैं!

हम अमिट लकीर को,
इस अश्रु-नीर से धोते|
करके रब  से आरजू,
आशा के  बीज बोते।
इससे अलग काया है?
अरे! ये क्या नया हैं!

जितेन्द्र कुमार - सीतामढ़ी (बिहार)

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