ये अश्रु वो नीर है,
जो वेदना को सींचते|
पलकों से निर्झरणी,
औ' शबनम बन जाते|
न पूछो और क्या है?
अरे! ये क्या नया हैं!
शबनम की सभी बूंदे,
दूर क्षितिज को जाती|
अदृश्य इस अनंत में,
रब को बखान आती|
तो भी कोई दया है?
अरे! ये क्या नया हैं!
नियति के ये तकाज़े,
कुटिल रेखा में सोते|
गर्दिश के पल में भी,
बड़े निष्ठुर सिद्ध होते|
इसकी कोई बयां है?
अरे! ये क्या नया हैं!
हम अमिट लकीर को,
इस अश्रु-नीर से धोते|
करके रब से आरजू,
आशा के बीज बोते।
इससे अलग काया है?
अरे! ये क्या नया हैं!
जितेन्द्र कुमार - सीतामढ़ी (बिहार)