क्या सोंचना जरूरी नहीं है? - लेख - सैयद इंतज़ार अहमद

दोस्तों, देश लगातार नई-नई समस्याओं से घिरता जा रहा है, जहाँ एक ओर स्वास्थ्य सम्बंधित समस्याएं विकराल रूप लेती चली जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है, ऐसे में एक आम आदमी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वो इन सब के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित करे। हर एक व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को लेकर डरा हुआ है, तो उसे आने वाले समय मे अपने और अपने परिवार के भरण-पोषण की चिंता भी सताए जा रही है। मजदूर अथवा निम्न वर्ग अपने छूटते हुए रोजगार से चिंतित है ही , तो मध्यम वर्ग का तो अस्तित्व ही संकट में नज़र आने लगा है। सरकार इतनी बड़ी आबादी के सर पर आई मुसीबतों का कोई उपयुक्त हल नही निकाल पा रही है, तो वहीं इस संवेदनशील समय मे राजनीति भी अपना रंग दिखाने लगी है।

इन सबके बीच समाज मे तेजी से उभर रही है भेदभाव की लकीरें जिन्हें दशकों के प्रयास से कम करने अथवा मिटाने का प्रयत्न किया जा रहा था जो इस महामारी के कुप्रभावों के रूप में वापस आ रही है। रोग प्रतिरोधक क्षमता और बेहतर चिकित्सा से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर काबू तो पाया जा सकता है, या इन्हें न्यून तो किया जा सकता है।कठिन परिश्रम करके चरमराई अर्थव्यवस्था को देर से ही सही पटरी पर लाया तो जा सकता है, लेकिन दिलों में जो भेदभाव के बीज बोए जा चुके हैं, ये समय के साथ परिपक्व होने पर अपना कुप्रभाव दिखाएंगे तो इसका परिणाम क्या होगा? इन समस्याओं से कैसे निपटा जाए ये स्वयं में एक प्रश्न है, क्या इन प्रश्नों के बारे में सोंचना जरूरी नही?

सैयद इंतज़ार अहमद
बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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