जीवंत भारत - कविता - दीपक चौधरी


पावक धरा नभ नीर वायु मौन हैं विक्षुब्ध हैं 
ब्रम्हांड के हर भाग में एक अविदित युद्ध हैं
कौशल सभी तकनीक के द्वार पर औझल हुए
भूलकर के युग प्रणेता आज हम निर्बल हुए
त्रासदी हैं शून्य मन को शून्यता ही दीजिए
वक़्त के अतिरेक में संवेदना भर लीजिए 
है समय यह बोध का संज्ञान का तो ध्यान का 
खो चुके जिसको सभी के उस अछूते ज्ञान का 
ये ना सोचे हम निराकारी स्वयंभू हैं अरे 
धुल कण है हम, धरा की पूर्णता हमसे परे 
हो भले ही सैंकड़ों कारण कठिन अवरोध के 
अब नहीं हैं शक्ति कोई साथ में प्रतिशोध के 
दे रहा आवाज़ उसको दंडवत होकर सुनो
स्वप्न भी जो बुन रहे हो मित्रवत होकर बुनो 
वो गगन से झांकता हैं क्यूँ अवज्ञा कीजिए
प्राण प्रण लेकर कठिन कोई प्रतिज्ञा कीजिए
हैं अमिट यह पुंज शक्तिबोध हो कुछ तो ज़रा
कौन है जो मार पाया आत्म मानव कब मरा
अब संताप सम यह नाद भीषण अश्रु में कैसे बहे
हो कोई अवतार के जो सृष्टि का हर दुःख गहे

दीपक चौधरी

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