अग्निकलम - कविता - अशोक योगी शास्त्री


कलम मेरी आज है तुम्हे पुकारती,
उठो,जागो हे वीर धरा के भारती !

उठा  शस्त्र.......,
कर भक्षण ......
संभाल गांडीव.......,
कर  तांडव ......
रचा संग्राम.......,
कर सर्वनाश........
रण की इस बेला मे,
स्वयं महाविनाशक है तेरा सारथी !
उठो ,जागो हे वीर धरा के भारती !!

जब पार हो जाऐ संयम की पराकाष्ठा,
रिपू के प्रहार से छिन्न-भिन्न हो हमारी आस्था ,
तब   शेष  नही  रहता  कोई  रा्स्ता,
स्वयं निर्णय करो ,त्यागो दिल्ली की दांस्ता,
अब छोड़ो धर्मनिरपेक्षता से वास्ता,
स्वयं भारती आज है तुम्हे पुकारती  
उठो, जागो हे वीर धरा के भारती  !!!

कब तक दूध पिलाओगे,
इन आस्तीन के सांपों को,
जिन्दा कब तक रखोगे,
इन हरामखोरों के पापों को,
वक्त आ गया है,
खत्म करो इन चंगेजों  के नागों को,
यह वीर प्रसूता धरणी है ,अन्धे राजपूत की शक्ति से,
दुश्मन   के   शीश  उतारती,
उठो, जागो हे वीर धरा के भारती !!!!

हे नृप नरेन्द्र अब तेरी चुप्पी,
खंजर  सी  चुभ  जाती है
जाग ,नही तो जनगंगा ,
खड़ग उठाकर लाती है,
इस वीर धरा के वीरों को,
कायरता कब  भाती है,
रण करो या मरण करो....,
रणभेरी की उतारो अब तुम आरती !!!!!


अशोक योगी "शास्त्री "
कालबा हाऊस नारनौल

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